Tuesday, January 28, 2014

ग्राहक बना दिया

                                                                                                 लेखक 
                                                                                               बलराम बिन्द 
ग्राहक बना दिया
निषाद संस्कृति के सभी उप जातियों के नेताओं ने समाज को ग्राहक बना लिया है। यह हर प्रदेश के हर कोने में जाते है और कहते है हम अपने समाज के बारे में नेताजी से बातें,कहीं दी है जल्दी ही गुडवाल पुआ मिल जाएगा आप हमारा साथ दे और हमारे हाथ को मजबूत करे ...अगर नहीं करगे तो नाहीं गुड वाला पुआ मिलेगा और न ही हाथ मजबूत होगा इस प्रकार से मेरा जल्दी से ग्राहक बन जाओ भाई .......नहीं तो देख लो ---समस्या आप के सामने है।
जागों ग्राहक ...जागों


Sunday, January 26, 2014

माझी समाज की सामाजिक जनगणना- अभियान


माझी समाज की सामाजिक जनगणना का शंखनाद खंडवा। जयजलदेव कहार मछुआ समाज कल्याण समिति मध्यप्रदेश के तत्वाधान में 26 जनवरी से खंडवा जिले में सामाजिक जनगणना का शंखनाद हो गया है। यह जानकारी देते हुए सचिव महेश बावनिया ने बताया कि जनगणना का शुभारंभ करते हुए मुख्य अतिथि वरिष्ट समाजसेवी देवा मामा जत्थाप ने इसे माझी समाज कल्याण की पहल हेतु प्रथम पायदान बताया है। अध्यक्ष विजय केशनिया ने जनगणना नायकों को गणना करने हेतु प्रशिक्षित किया। सुभाष बावने ने पूरे प्रदेश में खंडवा की तर्ज पर सामाजिक जनगणना करवाने पर जोर दिया। कार्यक्रम के अंत में गणनानायक भरत फुलमाली एवं विक्की बावनिया को मुख्य अतिथि वरिष्ट समाजसेवी देवा मामा एवं छगनदाजी फुलमाली ने पुष्पहार पहनाकर उन्हे गणना करने के लिए रवाना किया। इस अवसर पर रमेशचंद नागनपुरी, राम बावने, प्रकाश पिंजनियां, सुरेश बावने, अजय वर्मा, दिलीप बावनिया, भरत जत्थाप, कमलेश बावने, रवि फुलमाली आदि समाजजन उपस्थित थे।--

Thursday, January 23, 2014

इतिहास के ओर -निषाद राज

                                                                                           लेखक
                                                                                        राजेश निषाद

श्रृंगवेरपुर: वो जगह जो राम के जन्म की वजह बनी और निषाद राज का सम्बन्ध 

निषादराज का राजमहल आज भी भी श्रृंगवेरपुर में मौजूद है भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार कि चाहिए कि वह इस जगह को पर्यटक स्थल बनाये और यहाँ कि सारी सम्पति को निषादों कि सम्पति घोसित करे|
इलाहाबाद। राम के किस्से और कहानियां तो हम बचपन से सुनते आए हैं लेकिन इलाहाबाद से महज 40 किमी की दूरी पर है वो जगह जो भगवान राम के धरती पर आने की वजह बनी। ये जगह है गंगा किनारे बसा श्रृंगवेरपुर धाम जो ऋषि-मुनियों की तपोभूमि माना जाता है। इसका जिक्र वाल्मीकि रामायण में बहुत गहराई के साथ किया गया है।
धर्मग्रंथों के अनुसार राम के जन्म से पहले इस धरती पर आसुरी शक्तियां अपने चरम पर पहुंच गई थीं। राजा-महाराजा, ऋषि-मुनि सभी इनसे परेशान थे। ऐसे में किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ से जब इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि श्रृंगवेरपुर के श्रृंगी ऋषि ही इस समस्या से निजात दिला सकते हैं।
ऋषि श्रृंगी त्रेता युग में एक बहुत बड़े तपस्वी थे। जिनकी ख्याति दूर-दूर तक थी। राजा दशरथ के अभी तक कोई पुत्र नहीं था। केवल एक पुत्री थी जिसका नाम था शांता। दशरथ के मन में जहां एक ओर आसुरी शक्तियों से छुटकारा पाने की चिंता सता रही थी वहीं अपना वंश बढ़ाने के लिए पुत्र न होने की पीड़ा भी मन में थी। ऐसे में दशरथ को ऋषि वशिष्ठ ने इन समस्याओं के निवारण के लिए श्रृंगी ऋषि की मदद लेने की सलाह दी। तब राजा दशरथ की प्रार्थना पर ऋषि श्रृंगी उनके दरबार पहुंचे। 
ऋषि ने राजा दशरथ से कहा कि इन समस्त समस्याओं का एक ही हल है-पुत्रकामेष्ठी यज्ञ। इसके बाद राजा दशरथ के घर पूरे विधिविधान से पुत्रकामेष्ठी यज्ञ कराया गया और कुछ वक्त बाद दशरथ के यहां विष्णु के अवतार में भगवान राम का जन्म हुआ। पूरे बारह दिन तक चला था ये यज्ञ और इस दौरान दशरथ ऋषि श्रृंगी के तप, उनके ज्ञान और शक्ति से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी इकलौती पुत्री शांता का विवाह श्रृंगी ऋषि से करने का निर्णय ले लिया और तब श्रृंगी बन गए दशरथ के दामाद। 
माना जाता है कि श्रृंगवेरपुर धाम के मंदिर में श्रृंगी ऋषि और देवी शांता निवास करते हैं। यहीं पास में है वो जगह जो राम सीता के वनवास का पहला पड़ाव भी मानी जाती है। इसका नाम है रामचौरा घाट। रामचौरा घाट पर राम ने राजसी ठाट-बाट का परित्याग कर वनवासी का रूप धारण किया था। त्रेतायुग में ये जगह निषादराज की राजधानी हुआ करता था। निषादराज मछुआरों और नाविकों के राजा थे। यहीं भगवान राम ने निषाद से गंगा पार कराने की मांग की थी। 
निषाद अपने पूर्वजन्म में कभी कछुआ हुआ करता था। एक बार की बात है उसने मोक्ष के लिए शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान विष्णु के अंगूठे का स्पर्श करने का प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी ज्यादा वक्त तक कई बार जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अंत में त्रेता में निषाद के रूप मंी विष्णु के अवतार भगवान राम के हाथों मोक्ष पाने का प्रसंग बना। राम निषाद के मर्म को समझ रहे थे, वो निषाद की बात मानने को राजी हो गए।निषादराज का राजमहल आज भी भी श्रृंगवेरपुर में मौजूद है भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार कि चाहिए कि वह इस जगह को पर्यटक स्थल बनाये और यहाँ कि सारी सम्पति को निषादों कि सम्पति घोसित करे|



Wednesday, January 22, 2014

समुदाय के इतिहास पुरुष राजा नल


                                                                                 लेखक
                                                                        सुरेश कुमार एकलभ्य

समुदाय के इतिहास पुरुष राजा नल !!! 
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राजा नल का नाम एक इतिहास पुरुष, प्रेम संघर्ष और समुदाय के गौरव के रूप में सदेव स्थापित रहेगा। आज भी विरह, आल्लाह, किस्से और रागनियों में राजा नल दमयंती की कथा कही जाती है। समुदाय के इस महान शासक की प्रेम कथा, जीवन संघर्ष का अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। बोप लैटिन में तथा डीन मिलमैन ने अंग्रेजी कविता में अनुवाद करके पश्चिम को भी इस कथा से भली भांति परिचित कराया है।

राजा नल निषाद देश ( बाद में निषध देश किया गया) के राजा वीरसेन के पुत्र थे। राजा वीरसेन एक महान प्रशासक और दयालु प्रवर्ति के व्यक्ति थे। दमयन्ती विदर्भ (पूर्वी महाराष्ट्र) नरेश की पुत्री थी। वह भी बहुत सुन्दर और गुणवान थी। नल उसके सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर उससे प्रेम करने लगा। जब दमयंती को राजा नल के विषय में पता चला तो वह भी उन पर मोहित हो गई और मन ही मन उन्हें अपना वर मानने लगी। बाद में अनेको कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए राजा नल और दमयंती ने विजय प्राप्त की। 

आश्चर्य की बात है कि हमारा समुदाय आज भी इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ है कि राज नल और राजा वीरसेन उनके महान पूर्वजों में से एक हैं। जिस महान राजा से पूरी दुनिया परिचत है उसके वंसज आज उसी से अनजान बने हुए हैं।

समुदाय के महान वीर सपूत थे जुब्बा साहनी

                                                                                लेखक
                                                                     सुरेश कुमार एकलभ्य

समुदाय के महान वीर सपूत थे जुब्बा साहनी !!!!
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मुजफ्फरपुर में क्रांति का उद्घोष करने वाले जुब्बा साहनी का नाम बिहार के अग्रगण्य स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल है। इस महान वीर सपूत का जन्म सन १९०६ में बिहार के मुजफ्फरपुर जनपद के चैनपुर गाँव में हुआ था। जुब्बा साहनी का परिवार अत्यंत निर्धन था। मगर देश के प्रति समर्पण और बलिदान होने की भावना उसमे कूट -कूटकर भरी थी। वह लड़कपन से ही क्रांतिकारियों की संगत में भाग लेने लगे थे। उन्होंने बिहार में आजादी के कई आंदोलनो में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

सन १९४२ में महात्मा गांधी द्वारा भारत छोडो आंदोलन शुरू किया गया। इस आंदोलन के दौरान जुब्बा साहनी ने १६ अगस्त को मुजफ्फरपुर के मीनापुर थाणे के अंग्रेज इंचार्ज लियो वालर को आग में जिंदा झोंक दिया। यह एक बड़ी घटना थी। अंगेरीजी सत्ता ने जुब्बा साहनी को काफी मशक्क्त के बाद गिरफ्तार कर लिया। उन्हें फांसी की सजा हुई और ११ मार्च १९४४ को यह महान देशभक्त फांसी के फंदे पर झूल गया। बिहार के मुजफ्फरपुर में जुब्बा साहनी के नाम पर एक खेल स्टेडियम और पार्क बना हुआ है। जो आज भी उनकी बहादुरी और देशभक्ति की कहानी जीवित रखे हुए है।


कौन थे दशरथ मांझी

                                                                             लेखक
                                                                     सुरेश कुमार एकलभ्य

कौन थे दशरथ मांझी !!!
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मछुआ समुदाय वीरों की अद्भुत कहानियों से भरा पड़ा है। इस समुदाय के गर्भ से एक से बढ़कर एक रत्न अवतरित हुआ है। ऐसे ही एक अनमोल रत्न थे दशरथ मांझी। जिन्हे दुनिया Mountain Cutter और Mountain Man के नाम से भी जानती है। दशरथ मांझी का जन्म १९३४ में बिहार के गया जिले के एक अति पिछड़े गांव गहलौर नामक गाँव में हुआ था। गहलौर एक ऐसी जगह है जहाँ पानी के लिए भी लोगों को तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। उसी गाँव में अपने गरीब परिवार के साथ जीवन यापन करने वाले मजदूर दशरथ ने गहलौर पहाड़ को अकेले दम पर चीर कर ३६० फीट लंबा और ३० फीट चौड़ा रास्ता बना दिया। इसकी वजह से गया जिले के अत्री और वजीरगंज ब्लाक के बीच कि दूरी ८० किलोमीटर से घट कर मात्र 3 किलोमीटर रह गयी। 

यह महान कार्य करने के बीड़ा उन्होंनेट उठाया जबकि उनकी उम्र २५ साल भी नहीं थी। वह हाथ में छेनी-हथौड़ी लिये एक विशाल बाइस साल पहाड़ को बाइस साल तक काटते रहे। रात-दिन,आंधी-पानी की चिंता किये बिना दशरथ मांझी असम्भव को सम्भव करने में जुटे रहे। अंतत: पहाड़ को झुकना ही पड़ा। २२ साल (१९६०-१९८२) के अथक परिश्रम के बाद ही उनका यह कार्य पूर्ण हुआ। 

पहाड़ को चुनौती देने वाला यह महायोद्धा म्रत्यु से पार न पा सका। १८ अगस्त २००७ में समुदाय के इस वीर पुरुष का निधन हो गया। 
दशरथ मांझी का अंतिम संस्कार बिहार सरकार द्वारा राजकीय सम्मान के साथ किया गया i भले ही वह आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनका यह अद्भुत कार्य आने वाली कई पीढ़ियों को सदेव प्रेरणा देता रहेगा।

भर्म के शिकार -

                                                                            लेखक 
                                                                   बालक राम सांसी 
ब्राह्मण कितने ही टाइटिल लिखता है किन्तु अपने आपको हमेशा ब्राह्मण ही बताता हैं । इसी प्रकार क्षत्रिय कोई भी उपनाम लिख लें किन्तु जाति बताते समय स्वयं को राजपूत ही कहता है । बनिया भी चाहे कुछ भी शीर्षक लिख ले लेकिन कभी भी अपने को बनिए से भिन्न नहीं बताता । अगर चमार का उदाहरण ले तो चमार अपने आपको इक्यावन उपनाम ,शीर्षक, सम्बोधनों से गिनवाता है किन्तु जाति बत्ताते समय सीना ठोक कर स्वयं को चमार कहता है । 
शोषण और अत्याचार के अनेकों युग बीतने के बाद भी हम कोई सीख नहीं ले रहे और अपने जातीय स्वाभिमान को खंडित कर भिन्न भिन्न नामों से स्वयं को पृथक पृथक घोषित किये हुए अपनी एकता को स्वयं ही समाप्त करने पर पर उतारू हैं । हम गोत्रवाद, उपजातिवाद , व्यवसायवाद ,क्षेत्रवाद ,भाषावाद में फंस कर स्वयं को श्रेष्ठ मान मन ही मन प्रसन्न होते हैं ,जबकि हम भूल करते हैं क्योंकि लोकतंत्र में बहुमत के आधार पर सत्ता निर्धारित होती है और बंटे हुए लोग केवल मतदाता मात्र बनकर रह जाते हैं …… शासक नहीं बनते । 
हम सांसी संस्कृति के लोग स्वयं को कई नामों से गिनवाते हैं और नाना प्रकार ही जातियां बताकर अपने आप को शक्तिहीन प्रदर्शित करते हैं । जबकि हम भारत की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति के अनुगामी हैं । सांसी होकर भी स्वयं को सांसी न कहलवाकर वास्तव में हम अपने शोषण और अन्याय के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है जब कि व्यवस्था को दोष देते हैं।

Monday, January 20, 2014

निषाद संस्कृति के हक


                                                                                         लेखक
                                                                                  राजेश निषाद
निषाद संस्कृति के हक

निषाद ( मछुआ ) समाज समुद्रों, नदियों, नालों, और तालाबों के पास रहने वाला समाज है । जिस पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार है । लेकिन जितने लोगों ने भारत पर पर राज्य किया सभी ने निषाद समाज का शोषण किया और उनके समुद्रों ,नदियों, नालों और तालाबों पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया । जो कि सिर्फ निषाद समाज का उस पर अधिकार था| जो आज तक जारी है, निषाद समाज सबसे पहले जागरूक हुए । सबसे पहले ज्ञान प्राप्त किया उदाहरण के लिए मानव सभ्यता कि खोज नदियों, समुद्रों के किनारे हुयी है इस खोज में निषाद समाज का पूरा का पूरा योगदान रहा है । इसमें और किसी समाज का कोई योगदान न के बराबर है आज भी समय गवाह है कि हमारा समाज समुद्रों और नदियों और तालाबों के पास ही रहता है| लेकिन यह समाज राज्य करने और अपना आधिपत्य कायाम करने में क्यों असफल होता गया इस पर गहन अध्यन करने कि जरुरत है| महर्षि वेद ब्यास जी ने महाभारत लिख डाली, और वाल्मीकि जी ने रामायण लिख डाली, महर्षि कश्यप का योगदान,एकलव्य ने बिना गुरु की शिक्षा लिए धनुर्धारी बन गया जिसे द्रोण जैसे, महाकपटी, महाछली, ने आगे नहीं बढ़ने दिया| लेकिन आपको बताता चलूँ कि आज धनुष चलाने कि जो शिक्षा दी जाती है वह एकलव्य कि इजात कि हुयी विद्या है अंगूठा काटने के बाद से एकलव्य ऐसे ही धनुष चलाता था जैसे आज चलायी जाती है| तो भारत सरकार के सामने यह मांग रखता हूँ कि द्रोण पुरष्कार बंद करके एकलव्य पुरस्कार योजना चलाये| सबसे बड़ा तो वही हुआ जिसने बिना किसी के बताये हुए शिक्षा प्राप्त कर ली । द्रोण पुरष्कार देना निषाद समाज का अपमान करना है । हमारे पुश्तैनी धंधों को बंद कर दिया गया, और हमसे हमारा अधिकार छीन लिया गया और हम चुपचाप सिर्फ देखते रह गए कुछ नहीं कर पाये । हमारे अधिकार छीन लिए गए| हमें भुकमरी के कगार पर छोड़ दिया गया हम कुछ नहीं कर पाये । महारजा गुह्य राज निषाद श्री रामचंद्र जी के साथ मित्रता पूरवक अपने राज्य पर शासन करते रहे । आज भी उनका राजमहल श्रृंगवेरपुर में मैजूद है जो इस बात का परिचायक है हमने भी राज्य किया लेकिन बाकी लोगों से हम पिछड़ते गए सायद उसका सबसे बड़ा कारण हमारे समाज द्वारा दूसरे समाज के लोगों को पूरा मान सम्मान देना ही रहा हम किसी समाज के प्रति कभी उतने कठोर नहीं हुए जितना कि होना चाहिए था| हमने किसी का हक़ नहीं छीना । लेकिन दूसरों ने हमारा हक़ छीन लिया । उदहारण के तौर पर मैं आपको बताना चाहता हुँ कि जब श्री कृष्ण ( जिसको लोग भगवान् मानते हैं ) और बलराम जरासंध से युद्ध हारकर अपनी जान बचाकर भाग रहे थे तब राम मित्र गुह्य राज निषाद के पुत्र महाराजा वीर एकलव्य ने कृष्ण और बलराम को सरण प्रदान किया था और अपने राज्य का कुछ भूभाग दान में देकर रहने का आश्रय प्रदान किया था| जो कि एक मित्र राजा दूसरे मित्र राजा के प्रति करना करता है । लेकिन उसी कृष्ण ने एकलव्य का बध कर दिया| आज नदियों पर पुल बन गए लेकिन उसका ठेका हमको नहीं मिलता है| हमसे कहा जाता है कि आप के पास पुल को ठेका पर लेने और उसकी वसूली करेने का अनुभव आपके पास है क्या| मैं सरकारों से पूंछना चाहता हूँ कि क्या कोई सारा अनुभव अपनी माँ के पेट से सीख कर आता है क्या| जब हमें मौक़ा मिलेगा तभी तो हमें अनुभव प्राप्त होगा| बहन फूलन का बलिदान समाज कभी भुला नहीं पायेगा । तो निषादवंशीय बंधुओं से मेरा अनुरोध है कि एकजुट होइए, शिक्षित बनिए, संगठित होइए और अपना अधिकार लेकर रहिये| पुरे जल भूभाग पर हमारा ही जन्मसिद्ध अधिकार है| इतिहास गवाह है| समय गवाह है| अब हमें अपनी सरकार बनानी पड़ेगी
तभी निषाद समाज का हक़ उनको प्राप्त हो सकेगा| किसी कि नहीं सुनेंगे अपनी सबको सुनाएंगे इस अपने भारत देश पर अब निषादों का राज चलाएंगे ।

जय भारत , जय निषाद , वन्देमातरम, भारत मांता कि जय




Saturday, January 18, 2014

निषाद राष्ट्र

                                                                                                लेखक
                                                                                          घनश्याम निषाद
                                                                                                                        
                                                                                         
                                       निषाद राष्ट्र
निषादभूमि अथवा 'निषाद राष्ट्र' के विषय में कई महत्त्वपूर्ण तथ्य महाभारत में आये हैं। निषाद नामक विदेशी या अनार्य जाति के यहाँ बस जाने के कारण ही इस भू-भाग को 'निषादभूमि' या 'निषाद राष्ट्र' कहा जाता था।
'निषादभूमि गोश्रृंग पर्वतप्रवरं तथा तरसैवाजायाद श्रीमान श्रेणिमंतं च पार्थिवम्'[1]
अर्थात "सहदेव ने गोश्रृंग को जीत कर राणा श्रेणिमान को शीघ्र ही हरा दिया।"
प्रसंगानुसार निषाद भूमि का मत्स्य देश के पश्चात् उल्लेख हुआ है, जिससे निषाद भूमि या निषाद प्रदेश उत्तरी राजस्थान के परिवर्ती प्रदेश को माना जा सकता है। निषाद, जो निषाद भूमि का पर्याय हो सकता है, का महाभारत[2] में भी उल्लेख है-
'द्वारं निषाद राष्ट्रस्य येषां दोषात् सरस्वती, प्रविष्टा पृथिवीं वीर मा निषादा हि मां विदु:'
अर्थात "यह निषाद राष्ट्र का द्वार है। वीर युधिष्ठिर उन निषादों के संसर्ग दोष से बचने के लिए सरस्वती नदी यहाँ पृथ्वी के भीतर प्रविष्ट हो गई है, जिससे निषाद उसे देख न सकें।"

उपर्युक्त उल्लेख से भी निषाद राष्ट्र की स्थिति राजस्थान के उत्तरी भाग में सिद्ध होती है। यहीं महाभारत में उल्लिखित 'विनशन तीर्थ' स्थित था। शक क्षत्रप रुद्रदामन के गिरनार के अभिलेख (लगभग 120 ई.) में उसके राज्य विस्तार के अंतर्गत इस प्रदेश की गणना की गई है-
'स्ववीर्या जिंतानामानुरक्तप्रकृतीनां मुराष्ट्र श्वभ्रभरुकच्छसिंधु सोवीर कुकुरापरांत निषादादीनाम्...'
प्रोफेसर वुलर के मत के अनुसार निषाद राष्ट्र राजस्थान के हिसार तथा भटनेर के इलाके में स्थित था। क्योंकि यहाँ निषाद नाम की विदेशी या अनार्य जाति का निवास था, इसीलिए इस प्रदेश को 'निषादभूमि' या 'निषाद राष्ट्र' कहा जाता था।

बस एक क्रांति का इंतजार है

                                                                                 लेखक
                                                                     सुरेश कुमार एकलभ्य

बस एक क्रांति का इंतजार है
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भावनाए सीने में मृत है
जवाला आँखों में आहत है
दिशाओं में एकाकीपन रह गया
विशाल वृक्ष झोंके में ढह गया
रिक्त सिर को पाग की दरकरार है
बस एक क्रांति का इंतजार है

बूंदें बुलबुलों में ढलकर बह गई
सारी आशाएं सपनों में रह गई
धवज लहराकर धूमिल हो गया
नायक बिना गगन सुना हो गया
लावे में शुष्कता की भरमार है
बस एक क्रांति का इंतजार है

तरंग जन्म लेकर निढाल पड़ गई
उमंग निशब्द कोने में कही सड गई
नाट्य मंचन की परवर्ती बढ़ रही
दुष्टों की टोली कल्पित कथा गढ़ रही
बेसुरों में सुरों की कैसी तकरार है
बस एक क्रांति का इन्तजार है

घर -घर में निषादवतार हो गए
फूंस के घोड़े पालनहार हो गए
रण सजा नहीं सेनापति बन रहे
झुकाकर सिर सीना अपना तन रहे
आँखे निर्लज्ज दामन तारतार है
बस एक क्रांति का इन्तजार है

साँझ ढले दिनकर पहरा छोड़ रहा
अन्धकार में दिया कहीं टिमटिमा रहा
दूर कहीं से काले साए दौड़े आते हैं
देखें, सोने देंगे या निद्रा दूर भागते हैं
रात काली है गहरा बहुत अन्धकार है
बस एक क्रांति का इन्तजार है

Friday, January 17, 2014

जीने के लिए घर नहीं ........

                                                                           लेखक 
                                                                 बालक राम सांसी 
इस देश में जो लोग सदियोँ से जमीनो वाले माने जाते है यानि यू कहे जिनका जमीन से लेकर आसमान तक कब्जा और सरपंच से लेकर प्रधान मंत्री तक कब्ज़ा । उन लोगों को सरकार गरीब मानती है । देश में 15 करोड़ से भी जयदा विमुक्त घुमन्तू लोग है । लेकिन 21 वि सदी में 38 % विमुक्त घुमंतू लोग आज भी बेघर है । अपना रैनबसेरा सीवरेज के पाइपो ,पुलों के नीचे ,नीले आसमान के नीचे ,तरपलो में ,अपना जीवन बसर करने पर मजबूर है। राशन कार्ड , बी पी एल कार्ड से कोशो दूर है क्यों की जिनका घर नही उनका राशन कार्ड भी नही और सरकार कि हर मदद से वंचित है । सदीयों से आस लगाये बैठे है की कोई हमारी भी शुद्ध लेगा। क्या ये इस देश वाशी नही है हरियाणा में जिन जातिओं को आरक्षण दिया है क्या ओह इन से भी गरीब है ? यहाँ से पता लग रहा है कि इस देश में अब गरीबो को बचाने वाला कोई नही है फिर से दमन निति शुरु हो गयी है और दबंग लोग देश के लोकतंत्र का गला सरे आम काटने लग गये है ! और सरकार उनकी गुलाम बनकर रह गयी है मै आप ही से पूछता हूँ कि गरीबो को इंसाफ कोन देगा ?




एकजुटता का नारा बुलंद तो बहुत हुआ मगर..........

                                                                                   लेखक
                                                                             सुरेश एकलभ्य
एकजुटता का नारा बुलंद तो बहुत हुआ मगर...........
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विशाल मछुआ समुदाय के विखंडित होने के तत्त्वों में हम एकजुटता के आभाव को मुख्यत उत्तरदायी मानते हैं। यह अकाट्य रूप से सत्य भी है। जब-तब अधिकारों के प्राप्ति हेतु यह समुदाय संघर्ष हेतु तैयार होता है,एकजुटता की कमी स्प्ष्ट झलकती है। समुदाय का प्रतेयक व्यक्ति मुख्यत यही इंगित करता हुआ दर्ष्टिगोचर होता है कि अभी तक एकजुट नहीं होने के कारण, हमारी रणनीतियां असफल हो रही है। एकजुटता के वास्तविक एवं सरल विकल्प क्या हैं, ऐसे तथ्यों पर कोई बुद्दिजीवी अथवा नेतृत्वकर्ता विस्तृत प्रकाश नहीं डालता। वह सीधे -सीधे एकजुटता विचार तत्व को दोष प्रदान कर अपनी भूमिका का निर्वाह कर लेते हैं। सम्भवत अल्पविकसित, न्यून शिक्षित और आर्थिक विषमताओं से जूझने वाले समुदाय को, उचित दर्ष्टिकोण नहीं मिल पाने का यह मुख्य कारण है।

समुदाय के बुद्दिजीवियों ने एकजुटता को आधार मानकर शायद ही कभी कोई विश्लेषण किया हो। हलाहल चहुँ और होता है कि एकजुटता नहीं है। मगर एकजुटता की उत्पत्ति कैसे हो, इस पर कोई नहीं बोलता। एकजुटता की परिभाषा क्या हो, कैसे समुदाय एकीकरण के सूत्र में एकजुटता के तत्व का श्रेय उठाये, उसके विकल्प से एक बड़ा तबका अभी भी अनजान है। यह तबका कालांतर से उस विचार को प्रतीक्षारत है जिसकी बदौलत वह सफलता और सक्षमता के पायदान पर कदम रख सके। एकजुटता का मुख्य तत्व संवाद है। मगर इस विशाल समुदाय में उसकी भूमिका क्षीण है। संवाद एकजुटता में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। मगर सवांदहीनता के फलसवरूप पुरे समुदाय का सम्पर्क एक -दूसरे से कटा हुआ। गौरखपुर में रहने वाले निषाद समुदाय को बस्तर के अपने ही समुदाय की कोई खबर नहीं। मध्य प्रदेश के मांझी और कहार समुदाय को झारखंड के मांझियों से कोई मतलब नहीं। तमिलनाडु के मल्लाह और महाराष्ट्र के मल्लाह में कोई संपर्क नहीं। यह विषमताएं पुरे देश में व्याप्त है। परिस्थितयां इतनी जटिल हो चुकी है कि एक - दूसरे पर असहनीय अत्याचार होने पर भी इनके कानो पर जूँ नहीं रेंगती।

सवाल है कि सवांद विषमता से संघर्षशील इस समुदाय में एकजुटता का सूत्रपात कैसे किया जाए। कैसे एक विशाल समुदाय में यह संपर्क स्थापित हो। जब एक समुदाय एक संस्कृति का वाहक होते हुए भी विभन्न मंतव्य, अलग दर्ष्टिकोण को रेखांकित करता हो, कैसे सवांद के बिंदु पर पहल की जा सकती है। इसके लिए एक सरल -सा उपाय है, जो दहलीज से आरम्भ होकर देश के अंतिम छोर तक जा पहुँचता है। आप किसी गली मोहल्ले, गाँव अथवा नगर में रहते हैं। आप प्रतिदिन संध्या - प्रातः घूमने के लिए जाया करते हैं। इस समय का सदुपयोग संवाद का बेहतर विकल्प उपलब्ध कराता है। आपकी भांति भर्मण को आये अपने समुदाय के अन्य लोगों से आप सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं। इनमे बहुत से लोग आपको सामाजिक विषयों में रूचि लेने वाले अवश्य मिल जायेंगे। आप उनसे सामाजिक और राजनेतिक विषयों पर विस्तार से बात करें। उन्हें समुदाय में चल रही विभिन्न गतिविधियों की जानकारी अवगत कराना आरम्भ कर दीजिये। यहाँ से एकजुटता का प्रथम अध्याय प्रारम्भ होता है। लोग मिलते हैं। पीड़ा बंटती है और अपनत्व की शुरुआत हो जाती है। शोशल साइट पर यही प्रक्रिया तो चलती है। अन्यथा कहाँ महाराष्ट्र का वर्धा नगर और कहाँ उत्तर प्रदेश का आजमगढ़। कैसे इन दो मंझले नगरों के समुदाय के दो व्यक्तियों में संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। मगर धरातल पर यह कार्य पारदर्शिता का महत्त्व बढ़ा देता है। वस्तुत एकजुटता हेतु संवाद का प्रेषण स्वयं से शुरू करे और उसे एक से दूसरे फिर तीसरे तक प्रेषित कर दे।

संवाद के अंतर्गत आप अपनी भूमिका का और अधिक विस्तार कर सकते हैं। देश के विभिन्न भागों में रहने वाले मित्रो और सम्बन्धियों को समुदाय में होने वाली विभिन्न गतिविधियों के विषय में उन्हें अवगत कराते रहे। अपने - अपने राज्यों , शहरों में समुदाय की विशेष उपब्धियों , प्रमुख व्यक्ति और सरकारो द्वारा समुदाय हेतु लिए गए निर्णयो की जानकारी भी एक दूसरे से बांटे। इस प्रकार के संवाद से जहाँ ज्ञान और एकजुटता में बढ़ोतरी होती है वहीँ समुदाय की उन्नति हेतु विकल्प भी उत्पन्न होते हैं। समुदाय का जो तबका किसी विभाग अथवा किसी कम्पनी में नौकरी करता है, वह अपने दायित्य्वों का निर्वाह करते हुए, उसी क्षेत्र में कुछ क्षण समुदाय की एकजुटता के लिए निकाल सकते हैं। साप्ताहिक छुट्टी के दिन अथवा माह के अन्य किसी दिन उस क्षेत्र में अपने समुदाय से सम्बंधित लोगों का पता लगाए। उनसे संपर्क स्थापित करके उनसे परिचय बनाये और समुदाय से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करें । शनै; शनै समुदाय के यही अज्ञात लोग आपके सर्वाधिक घनिष्ठ होंगे। स्मरण रहे मछुआ समुदाय देश का एक महान समुदाय है जो शत्रु की भी आवाभगत करता है फिर आप तो उसके अपने बंधू हैं।

( सम्पादित लेख श्री सुरेश साहनी जी को प्रेषित )


धींवर... आखिर इस दुर्दशा का जिम्मेवार कौन

                                                                                   लेखक
                                                                             सुरेश कुमार एकलभ्य
धींवर... आखिर इस दुर्दशा का जिम्मेवार कौन ??? *******************************

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धींवर जाति दयनीय परिस्थितियों में संघर्षरत है। भारत की राज्य सरकारे ही नहीं उच्च स्तर तक को इसका आभास है। हम स्वयं इस सत्यता को मुखरता से स्वीकार करते हैं। मगर छोभ का विषय यह है कि हम इस दुर्दशा के मुख्य पहलुओं की ओर ध्यान कभी नहीं देते। हमारी इस शांत और मेहनती जाति को रसातल तक पहुचाने का जिमीवार कौन है। क्या हम स्वयं अथवा इसके पीछे कुछ अन्य कारण रहे हैं ? हम कभी वास्तविक पहलुओं का पक्ष अथवा विश्लेषण नहीं करके स्वयं खुद को ही दोषी ठहरा देते हैं। कभी शिक्षा का रोना रोयंगे,कभी एकजुटता को उत्तरदायी बना देंगे। इससे आगे की सोच हम कभी उत्पन्न ही नहीं होने देते। धींवर जाति गरीब क्यों है ?? ************************* प्रारम्भ से धींवर जाति का मुख्य व्यवसाय मत्स्य पालन रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि जल और जंगल पर हमारा सामान अधिपत्य रहा होगा। लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि इस जाति की नगरीकरण में नाममात्र की भूमिका रही होगी। परिणामस्वरूप धींवर जाति ने ग्रामीण प्रष्ठभूमि को ही अपने जीवन का आधार बनाया और रोजी रोटी के अधिकांशत प्रयास जल और जंगलों में तलाशे गए। इन्ही कार्यों के अंतर्गत आर्यों ने इस जाति को शुद्र की श्रेणी में स्थापित कर दिया। यही से इस जाति के पतन की व्यथा आरम्भ होती है। शने: शने: जंगल और जलाशय इत्यादि ख़त्म होने से रोजगार के अवसर समाप्ति के कागार पर पहुँचने लगे। धींवर ने अस्थायी विकल्प के रूप में स्वर्ण जातियों के घरों में पानी भरने एवं बेगार करने का रास्ता चुना। यह जाति जल से जुडी थी। इस कारण स्वर्ण जातियों को इनके हाथ का पानी ग्रहण करने और घर में घुसने पर कोई पाबंदी भी नहीं थी। धींवर शांतप्रिय और स्वामिभक्त लोग थे। विद्रोह करना अथवा दबंगई वाला कोई भी स्वभाव इनमे प्रकट नहीं होता था। जबकि स्वर्ण जातियों की प्रवर्ती इसके ठीक उलट थी। उन्होंने जंगलों और तालबों पर एकाधिकार करना शुरू कर दिया। उन्होंने इस जाति के सरल स्वभाव का फायदा उठाकर इन्ही के संसाधनों पर अकारण आधिपत्य किया। इसके अत्यंत घातक परिणाम हुए। धींवर जाति के हाथों से उसके मुख्य रोजगार छीन गए और वह रोजी रोटी के लिए पूर्णतया स्वर्ण जातियों के ऊपर आश्रित हो गया। ना उसके पास मछली पकड़ने के लिए पानी था ना ही अन्न उगाने के लिए जमीन। जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन थी, उसे भी लोग कब्जाने का षड्यंत्र बनाने लगे। दरिद्रता की वास्तविक कथा यही से आरम्भ हुई। धींवर शिक्षा से वंचित क्यों ?? ******************* आर्यों ने श्र्ग्वेदिक काल में शूद्रों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा।शूद्रों को वेदों को पढने का कोई अधिकार नहीं था। केवल सुनने की अनुमति थी। उन्होंने जो कहानियां पढ़ाई धींवर जाति ने उसका अनुसरण किया। किन्तु आधुनिक युग में प्रवेश के समय इस जाति की उसके कर्मों के संग चली आ रही दरिद्रता शिक्षा में अवरोध बन गई। परिणाम यह हुआ कि इस जाति के बहुसंख्यक मजदुर अपनी संतानों को शिक्षा से लाभंविंत नहीं कर पाए। जिसके कारण गरीबी और शिक्षा का प्रतिशत गिरता चला गया। रोजगार के लिए न इस जाति के पास जमीन थी और न स्वर्ण जातियों के यहाँ बेगार करने से अतरिक्त दूसरा धधा। परिणामत यह जाति पिछडती चली गई। धींवर में किसने प्रगति की ***************** धींवर जाति में सर्वप्रथम उन्नति की सीढियाँ चढ़ने वाले वह लोग रहे स्वर्ण जातियों से जिनका जुड़ाव नाममात्र ही था। इनमे किसान धींवर और नगरों में बसे धींवर तरक्की करने में अधिक सफल रहे। मगर जो गरीब तबका था , वह स्वर्ण जातियों के रहमोकरम पर ही निर्भर रहा। गावों में आज भी यही स्थिति है। अगर गरीब धींवर और समर्थ धींवर का विकास अनुपात किया जाए तो ५:९५ बैठेगा। अर्थात अगर गरीब धींवर के ५ बालक सफल होते हैं तो समर्थ धींवर के ९५ बालक सफल होंगे। वह कारण क्या है जो धींवर जाति प्रगति नहीं कर पा रही है ************************************* स्वर्ण जातियों की दबंगई आज भी इस जाति पर जारी है। अपने खेतों में बेगार कराने की परम्परा अभी तक ख़त्म नहीं हो पायी है। स्वर्ण जातियां आज भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि जिसे वह "कमीन" कहते हैं वह उनकी बराबरी करे। परिणामत उन्होंने इस जाति को इतना भयाक्रांत कर दिया है कि इसमें असुरक्षा की भावना पैदा हो गई है। इस जाति में जो लड़के पढाई करके नौकरी करना चाहते हैं उनके रास्तों में व्यवधान डालकर यह षड्यंत्र रचने से भी बाज नहीं आते। यही नहीं उनके बुजर्गों एवं अभिभावकों को नशे की तरफ अगर्सर करके उन्हें पैसा बांटा जाता है। वह भी मोटे सूद पर। परिणाम यह होता है कि उनके बच्चे शिक्षित हो नहीं पाते और पुन स्वर्ण जातियों की परम्परा का निर्वहन करने लगते हैं। बेगार करने की परम्परा। चुनाव में इस जाति के प्रतिनिधि इसलिए पीछे रह जाते हैं कि स्वर्ण जातियों की दबंगई और उनके कर्ज के चलते वोट उसी प्रतिनिधि को जाते हैं जिसे यह लोग चाहते हैं। इस जाति के संगठन भी इसीलिए असफल हैं कि इनके पास ना साधन हैं और ना ही स्वर्ण जातियों की दबंगई से लड़ने का कोई शसक्त हथियार।

Thursday, January 16, 2014

जिसका इतिहास नहीं खुद मीट जाता है

                                                                                           लेखक
                                                                                  डॉ संजय निषाद
जिसका इतिहास नहीं खुद मीट जाता है 



जिस जाति, समाज व देश को गुलाम बनाना हो उसके इतिहास व संस्कृति को नष्ट कर दो! 
निषाद जाति भारतवर्ष की मूल एवं प्राचीनतम वंश हैं। प्राचीनकाल में निषादों की अपनी अलग सत्ता एवं संस्कृति थी, एवं निषाद एक जाति नहीं बल्कि चारों वर्ण से अलग पंचम् वर्णके नाम से जाना जाता था। निषाद समुदाय भाषा एवं क्षेत्र के अनुसार विभिन्न नामों से जाने जाते है। आदिकवि महर्षि बाल्मीकि, विश्वगुरू महर्षि वेद व्यास, भक्त प्रह्लाद और रामसखा महाराज श्रीगुहराज निषाद जैसे महान आत्माओं ने इस वशं को सुशोभित किया है। स्वतंत्रता आन्दोलन में भी इस समुदाय के शूरवीरों ने चैरी चैरा, सतीचैरा काण्ड में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, लेकिन आज इस समुदाय के लोंगो में वैचारिक भिन्नता के कारण समुदाय का विकास अवरुद्ध सा हो गया है। उप-जाति, कुरी, गौत्र के आधार पर समुदाय का विखंडन हो रहा है, फलतः समुदाय के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक मान-मर्यादा में ह्रास हो रहा है। इसी वैचारिक भिन्नता का उन्मूलन एवं उप-जाति, कुरी, गौत्र के आधार सामाजिक विखराव को रोकने हेतु एक प्रयास किया जा रहा है। संगठन के माध्यम से हम अपने समुदाय के सभी सदस्यों को भाषा, क्षेत्र, उप-जाति, कुरी, गौत्र जैसे भेदभाव मिटाकर आपसी एकता को मजबूत करने का अनुरोध करते हैं।

पुरे भारत पर होगा निषादों ( मछुआ ) समाज का राज

                                                                                                   लेखक
                                                                                             राजेश निषाद

पुरे भारत पर होगा निषादों ( मछुआ ) समाज का राज 

निषाद ( मछुआ ) समाज भारत की साशनिक और प्रसाशनिक पदों पर अपनी हिस्सेदारी कब तक सुनिश्चित करेगा । इसका सीधा साधा कोई जबाब किसी के पास नहीं है । कारण एक सर्वे से पता चलता है कि निषाद ( मछुआ ) समाज में साक्छरता प्रतिशत सिर्फ १०% है तो उच्च शिक्षा तक कितने % लोग शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं कोई आकड़ा किसी के पास उपलब्ध नहीं है । लगभग पुरे भारत में एक सर्वे के अनुसार निषाद ( मछुआ ) समाज कि कुल आबादी करीब २० करोड़ है जो लगभग भारत के सभी राज्यों में अपनी उपस्थिति को साबित करता है| अगर वेदों और पुराणों के बारे में देखा जाय तो रामायण से लेकर महाभारत तक में यह समाज अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है लेकिन अपनी प्रभुसत्ता कायम नहीं कर पाता है कारण यह समाज तेज तर्राक अपने को साबित नहीं कर पाया और कूटनीति के मामले में ज्ञान अधूरा होने या फिर उसका पालन न कर पाने का खामयाजा भुगतना पड़ा अंग्रेजों ने हमें जंगलों कि तरफ जाने को मजबूर किया क्यों कि हम लोगों ने अंग्रेजों से कडा मुकाबला किया । देश आज़ाद होने के बाद भी किसी सरकार ने हमें उचित प्रतिनिधित्व नहीं प्रदान किया आज भी हम अपने हक़ के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं कारण हम| एकजुट नहीं है । लेकिन मुझे विश्वाश है कि एक न एक दिन पुरे भारत पर निषाद समाज का राज होगा कारण बताता हूँ समय परिवर्तनशील है परिवर्तन होता रहता है राजे महराजे आये चले गए मुग़ल बादसाह आये चले गए अंग्रेज आये चले गए, सभी ने अपने हिस्से का राज कर लिया है अब सिर्फ निषाद समाज के हिस्से का राज करना बाकी है । तो भाइयों आप से अनुरोध है कि एकजुट हो जाइये और हुंकार लगाइये और संघर्ष कीजिये, शिक्षित बनिए, संगठित होइए,मेरा मानना है कि कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो हमें भारत पर राज करने से रोक सके| बजा देंगे डंका विगुल का लेकर रहेंगे अपना अधिकार |

जय निषाद 

धन्यवाद

Wednesday, January 15, 2014

दे सको दे दो सबको

                                                                                   लेखक/रचनाकार:                   
                                                                                रामप्रसाद रैकवार


!! दे सको दे दो सबको !!

दे सको तो दे दो सबको .!
वो अच्छी शाँश ही दे .....!!

जो कर दे सब प्रफलुत .!
वो सारी ऊर्जा ही दे दो .!!

तनी हे टोपी फिर इतनी जिल्लत क्यों हे .!
वो इज्ज़त का सामान ही दे दो ............!!

नोंच ही ली हे वर्षों से सर की पगड़ियाँ .!
वो सारी इज्ज़त ही दे दो .................!!

कसमसाता सा मेरा अवाम ही क्यों हे .!
वो सावन का अच्छा मोसम ही दे .....!!

सूखी नदियाँ और नमकीन क्यों हे समुंदर .!
अवाम को वो नाँव की पतवार भी दे दो .....!!

प्रकितिक ने दी स्वर्ग सी धरती ..!
प्रकितिक का वो साधन ही दे दो .!!

मिट जाने दो दिल वो सारी दूरियाँ .!
दुआ की वो इबादत दे दो ...........!!

फक्र करे फिर मेरे अवाम की धरती .!
वो फक्र की बात ही दे दो .............!!

चटक हो पगड़ी मेरे अवाम की .!
एक बार वो इज्ज़त ही दे दो ....!!

कुछ भी अगर फिर दे न सको तो भी ...!
मुझको मेरा सपनो का भारत ही दे दो .!!

जय हिन्द ..जय समाज ..जय भारत 

दिनांक: 01.09.2013..

क्या आपको पता हे आज के दिन कोन आजाद हुआ था


                                                                                   लेखक/रचनाकार:                   
                                                                                रामप्रसाद रैकवार
!! क्या आपको पता हे आज के दिन कोन आजाद हुआ था !!

बेसक भारत देश १५ अगस्त १९४७ को आज़ाद हुआ हो पर दलित और पिछड़ों/मूलनिवाशियों को वास्तविक और कानूनी आज़ादी ३१ अगस्त १९५३ को ही मिली ही मिली थी ...? जो कम ही लोग जानते हे,और जिनको पता भी हे वो शायद भूल गये कभी सोचा हे की इस वर्ग को इतनी देर में आजादी क्यों मिली ....? क्युकी आप ही इस देश के मूल निवाशी और आदिवाशी थे और अभी भी हे ...बाकी की मूल बातों पर
 फिर से कभी चर्चा होगी ...? लेकिन एक उदाहरण जरूर दे देता हूँ आप ही सबसे बड़े क्रांति कारी थे,इसलिए जाते-जाते अंग्रेज अपनी रिपोर्ट और सलाह में लिखकर गये थे,की इस वर्ग में उग्रता हे और देश के लिए जज्बा हे मर मिटने का इसीलिए एक साजिश और षडयंत्र के वास्तविक आज़ादी से अभी तक भी महरूम इस वर्ग को रखा गया हे ...?

जय समाज ...जय मूलनिवाशी ...जय आदिवाशी 

जय कश्यप ...जय निषाद 

लेखक/रचनाकार: रामप्रसाद रैकवार ...

दिनांक: 31.08.2013...
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क्यों हूँ गुलाम सा नहीं दिखा इंसान सा

                                                                                   लेखक/रचनाकार:                   
                                                                                रामप्रसाद रैकवार


!! क्यों हूँ गुलाम सा नहीं दिखा इंसान सा !!

क्यों हूँ में गुलाम सा नहीं दिखा इंसान हे .!
क्यों हूँ में परेशान सा .......................!!

फोकी तुर्राटी हे सरो पे फिर,हुक्का केवल चोपाल में .!
रहो फिर ख्याल में,यह दिमाग हे इंसान सा .........!!

आजाद हे न मिले हवा,क्यों हे कोई अब गुमान सा .!
जो थे मूल निवासी यहाँ,क्यों हे वो अब गुलाम सा .!!

दिखते केवल सपने यहाँ,यह जीवन क्यों पहाड़ सा .!
जंगल भी अब अपने नहीं,नहीं कोई सम्मान सा ...!!

न हे नदी न तालाब अपना,वो हे केवल सपना सा .!
उजड़े यहाँ गाँव भी,शहर भी अब शमसान सा ......!!

खुली घटा क्यों दम घुटा,दबी सी हे जुबान भी .....!
खुले हे रास्ते वतन,क्यों बाजार भी सुनसान सा .!!

न खेत हे न खलियान अपना,मजबूर यहाँ किसान भी .!
फतवों के लगे जो दौर यहाँ,अब लगे फरमान सा ........!!

कब्जा लिए दिमाग भी,ज्ञान भी अवाम की शान भी ...!
टपके का डर्र हर किसी को क्यों,डरा हे अब अवाम सा .!!

रोकिटों आवाज में घुटी सी हे,हर जुबान क्यों ........!
छुपी हे वो तलवारे भी,मोके पे न हे कोई खंजर सा .!!

वो शिकार भी करे यहाँ,बैठके मचान पे ......!
दिखे न वो न दिखाई दें,खेल हे बेइमान सा .!!

डरा-डरा सा अवाम क्यों,हे वो क्यों परेशान सा .!
बेठा यहाँ इंसान सा,लगे हे क्यों, शेतान सा ....!!

जमीदारों की तरह ही दौर हे,और हर जगह हे शोर सा .!
मिला न कोई दम सा,नहीं कोई इंसान सा .............!!

व्यापार के इस नए दौर में,इंसान ही शेतान सा .!
पाठ पड़ाए ज्ञान का,लगे हे क्यों बेइमान सा ....!!

क्यों हूँ में गुलाम सा नहीं दिखा इंसान हे .!
क्यों हूँ में परेशान सा .......................!!

जय हिन्द ..जय समाज .. जय भारत 

लेखक/रचनाकार: रामप्रसाद रैकवार ...

दिनांक: 02.09.2013...

कद्र करो

                                                                                   लेखक/रचनाकार:                   
                                                                                रामप्रसाद रैकवार



!! कद्र करो !!

कद्र करों जो हे देश की पगड़ी .!
उसका भी ख्याल करो ........!!

जिसमे लिपटा पहले से वतन हे .!
इज्ज़त के सब काम करों .........!!

क्यों गर्म सा देश का मोसम अपना .!
कद्र करों कुछ कद्र करो ...............!!

उछले न फिर देश की पगड़ी .!
ऐसा ही कुछ अब काम करो .!!

लोग बिदकाएं कोई बिदक ना जाए .!
सोचो तो और धीर धरो ..............!!

बाड़ सी आई क्यों नदी में अबकी बारी .!
काई साफ़ हो रही बस कद्र करो ........!!

मेरे मूल के क्यों सवाल हे बाकी .!
वतन की भी कद्र करो ............!!

दिल और दिमाग कर लो और अमीर सा .!
न संकीर्णता का काम करो .................!!

कंजूसी की न अब बात करो .!
कद्र करों बस कद्र करो .......!!

देश भी अपना और और लोग दीवाने .!
कद्र करों बस कद्र करो .................!!

तेवर देखे हे कसेले और चेहरे .!
कद्र करो बस कद्र करों .........!!

सबसे पहले खुद को तो जीतो .!
जगत में तभी फिर नाम करो .!!

इंसान लटका हे त्रिशंकु बनकर .!
कद्र करो बस कद्र करो ..........!!

कद्र करों जो हे देश की पगड़ी .!
उसका भी ख्याल करो ........!!

जय हिन्द . जय समाज .जय भारत !!

लेखक/रचनाकार: रामप्रसाद रैकवार ...

दिनांक: 03.09.2013...