अर्जुन बनो
अथवा कर्ण, एक मोर्चा
तो लेना पड़ेगा !!
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रणभूमि रणवीरों की प्रतीक्षा में व्याकुल है मगर रणवीर है कि अभी यही निर्णय नहीं कर पाये हैं कि युद्धघोष कैसे होना है। इन वीर योद्धाओं पर यह उक्ति स्पष्ट चरितार्थ होती है कि "सूत ना कपास जुलाहों में लठमलत्ता". समुदाय में अभी तक यही जद्दोजहद चल रही है कि हम छत्रिय हैं , ब्राह्मण हैं,शुद्र हैं, फलाने हैं, ढिमके हैं। स्वाभाविक है कि अभी तक समुदाय अपने अस्तित्व के शैशवकाल में संघर्षरत है। वर्ण व्यस्था के इस कठिन चक्रव्यूह में लोटपोट यह समुदाय कब और कैसे अपने अधिकारो के लिए रणभेरी बजाये, यह यक्ष प्र्शन आज मुह बाए खड़ा है।
युद्ध जब भी होते हैं, उनके पीछे कई मुख्य कारण होते हैं। मगर इस विशाल समुदाय के समक्ष तो कारण ही नहीं अपितु तात्कालिक जरूरते तक हैं। मगर अहंकार है कि शस्त्र उठने ही नहीं दे रहा। कारण स्पष्ट है कि मछुआ समाज आज भी खुद को निम्नता और श्रेष्ठा के कवच से मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि हम स्वयं ही छत्रिय बन जाते हैं और स्वयं ही शुद्र। फिर रणभेरी कैसे बाजे। स्मरण रहे, यदि अधिकार प्राप्त करने हैं तो शुद्र बनकर ही मिलेंगे। छत्रिय और ब्राह्मण बनकर कोई उपलब्धि हमें न मिलेगी। मत भूलिए कि इस मुल्क का ४० फीसदी से ऊपर का तबका वर्ण व्यवस्था के आधार पर केवल शुद्र है। उस अभिमान को ह्रदय से निकाल दीजिये कि हम छत्रिय बनकर मंजिल फतह कर लेंगे। परिस्थितियों का आंकलन करिये। लक्ष्य और आधार देखिये फिर सोचिये कि रणभेरी कैसे बजाये। कैसे रणभूमि में ताल ठोकें। अन्यथा जिस प्रकार का वातावरण है वह तो जुलाहों की उक्ति को ही प्रासंगिक बनाता रहेगा।
जय कालू बाबा !
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रणभूमि रणवीरों की प्रतीक्षा में व्याकुल है मगर रणवीर है कि अभी यही निर्णय नहीं कर पाये हैं कि युद्धघोष कैसे होना है। इन वीर योद्धाओं पर यह उक्ति स्पष्ट चरितार्थ होती है कि "सूत ना कपास जुलाहों में लठमलत्ता". समुदाय में अभी तक यही जद्दोजहद चल रही है कि हम छत्रिय हैं , ब्राह्मण हैं,शुद्र हैं, फलाने हैं, ढिमके हैं। स्वाभाविक है कि अभी तक समुदाय अपने अस्तित्व के शैशवकाल में संघर्षरत है। वर्ण व्यस्था के इस कठिन चक्रव्यूह में लोटपोट यह समुदाय कब और कैसे अपने अधिकारो के लिए रणभेरी बजाये, यह यक्ष प्र्शन आज मुह बाए खड़ा है।
युद्ध जब भी होते हैं, उनके पीछे कई मुख्य कारण होते हैं। मगर इस विशाल समुदाय के समक्ष तो कारण ही नहीं अपितु तात्कालिक जरूरते तक हैं। मगर अहंकार है कि शस्त्र उठने ही नहीं दे रहा। कारण स्पष्ट है कि मछुआ समाज आज भी खुद को निम्नता और श्रेष्ठा के कवच से मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि हम स्वयं ही छत्रिय बन जाते हैं और स्वयं ही शुद्र। फिर रणभेरी कैसे बाजे। स्मरण रहे, यदि अधिकार प्राप्त करने हैं तो शुद्र बनकर ही मिलेंगे। छत्रिय और ब्राह्मण बनकर कोई उपलब्धि हमें न मिलेगी। मत भूलिए कि इस मुल्क का ४० फीसदी से ऊपर का तबका वर्ण व्यवस्था के आधार पर केवल शुद्र है। उस अभिमान को ह्रदय से निकाल दीजिये कि हम छत्रिय बनकर मंजिल फतह कर लेंगे। परिस्थितियों का आंकलन करिये। लक्ष्य और आधार देखिये फिर सोचिये कि रणभेरी कैसे बजाये। कैसे रणभूमि में ताल ठोकें। अन्यथा जिस प्रकार का वातावरण है वह तो जुलाहों की उक्ति को ही प्रासंगिक बनाता रहेगा।
जय कालू बाबा !
लेखक
सुरेश कश्यप
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