निषाद : मुक्ति का सपना
लेखक
बलराम बिन्द
संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्र,
सत्र
-2012-13, म.गां.अं.हिं.वि. वर्धा
मोबाईल – 7709623388
सोशल मीडिया की बेबाकी और पारदर्शिता की चाह ने निषादों को सिर्फ राजनीति और
आर्थिक,
बल्कि सामाजिक, साहित्य का भी नए ढंग से मूल्यांकन किया है। अब इस नए कलेवर
में बढ़ती हुई अपेक्षाओं के विस्फोट से सब विधाओं के मठाधीश असुरक्षित महसूस कर
रहे हैं। विकास गौर कहते है कि “सोशल मीडिया आने के बाद निषद समाज के दूसरी आजादी के रूप
में देखते है, कहते है कि जो कभी हमारे समाज के समाचार
पत्रों में कभी कभार एक खबर देखने को मिल जाती थी आज सोशल मीडिया के माध्यम से देश
के हर कोने या विदेशों में रहने वाले निषदों से संवाद और समाचार तुरंत मिल जाती है”
सोशल मीडिया ने निषादों के इतिहास में
एक नया अध्यया जोड़ने के काम कर रहा है एवं साहित्य के रूप में हाशिये के समाज को
आवाज बनती जा रही है। अरुण कुमार
तुरहा कहते है कि “सोशल
मीडिया ने निषदों के इतिहास को आवाज देने के काम कर रही है जो निषदों के इतिहास को
हजारों वर्षो से भर्मित कर के रखा गया था वह
दूर कर रही है” आज सोशल मीडिया एक उभरती हुई सच्चाई है और बहुत तरह के नए
संघर्षों को जन्म दे रही है। शोषक विचारधारा के व्यवस्था से आज सोशल मीडिया से
चुनौती मिल रही है, उसी तरह सामन्ती मठाधीशों को भी सोशल मीडिया से कष्ट हो रहा है। क्योकि केवल
सीमित लोगो तक लेखन के साहित्य उपलब्ध था। हर दिन सोशल मीडिया के माध्यम से
साहित्य को देश के किसी कोने में समाज के हर विंदु पर जानकारी आसानी से उपलब्ध हो
जा रहा है। उस पर क्रिया-प्रतिक्रिया संवाद स्थापित कर साहित्य का एक नया निष्कर्ष
पर पहुँच जा रहा है। जो कभी समाचार पत्र को देखने या खोलने के बाद कही एक संवाद
देखने को नहीं मिलता था। इस सोशल मीडिया पर समाचार पत्र के रूप में अपना ग्रुप बना के जैसे निषाद मीडिया, निषाद नमन, आल इंडिया फिशर मैन, बना के संवाद स्थापित कर ले रहा है। जिनसे मिलने या बात करने का सौभाग्य
या दुर्भाग्य आमजन को कभी कभार ही मिल पाता था, आज सोशल मीडिया ने उन्हें भी सुलभ बना दिया है।
राम प्रसाद राइकावर कहते है कि “सोशल मीडिया से निषदों के राजनीतिक
भागीदारी अहम भूमिका निभा रही है, संघर्ष के नये प्रतिमान
स्थापित कर रही है”अब
निषादों के अंतर-संघर्ष, विचारधाराओं के कलह और गुटबंदियों ने एक नए किस्म का आयाम खोला है। राजनतिक
पार्टीयों और सामंतवादी विचार के मठाधीशों को सोशल मीडिया के मजबूत होने से कष्ट
हो रहा है, इसके
मजबूत होने के निहितार्थ इतने विराट हैं कि किसी भी तरह की संस्थागत गुलामी करने
वालों को इससे कष्ट होगा जैसे कि निषदों के विकास,आरक्षण के नाम सभी पार्टी सपा, बसपा, भाजपा, काग्रेस,आदि पार्टीयों
ने आरक्षण के नाम पर निषदों के ठगना, आज सोशल मीडिया ने इन सब
पार्टी के सच्चाई से रूब –रूब करा रही है ।
देखा जाय तो संस्थागत धर्म के गुलामों को स्वतंत्र और स्वच्छंद लोगों, विचारधारा से भय होता है, उसी तरह निषाद लेखकों ने आजादी के नई इबारत लिख रहे है।
सोशल मीडिया की बेबाकी और निषादों के इतिहास में धर्म, जनजातीय बोली, सामाजिक पहचान पारदर्शिता की चाह ने न सिर्फ राजनीति और
विकास,
बल्कि निषादों के मुद्दों का भी नए ढंग से मूल्यांकन किया
है। अब इस नए कलेवर में बढ़ती हुई अपेक्षाओं के विस्फोट से सब विधाओं के मठाधीश
असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
अनिल कश्यप कहते है कि “सोशल मीडिया ने निषदों के मिथिकीय कहानी से दूर ले जा रही है। और हर दिन निषदों
के इतिहास के कहानी कर रही है” जैसे धर्मों के सर्वमान्य शास्त्र और
पारंपरिक मान्यताएं अब नए समय का मुकाबला नहीं कर पा रही हैं - ठीक उसी तरह
निषादों के साहित्यिक योगदान में सामाजिक दृष्टिकोण में तेज़ी से सब कुछ नया होता
जा रहा है उसका मुकाबला कोई सामंतवादी विचारधारा या परम्परा नहीं कर पा रही है।
जिस तरह की आजादी और वैयक्तिक स्वतन्त्रता के स्वप्न सदा से देखे गए हैं, उन स्वप्नों का विवरण देने वालों की व्याख्यायें ही नए
कारागार निर्मित कर रही हैं। सोशल मीडिया से निषादों को अपनी अभिव्यक्ति की नई
पहचान मिली है ।
रामसूरत बिंद” कहते है कि “सोशल मीडिया ने निषाद समाज को के साहित्य के मजबूती प्रदान कि है जो कभी
इस समाज के लेखक और विचारक का संवाद और साहित्य सभी के पास नहीं पहुँच पा रही थी
आज देश के हर कोने से विचार और विचारधारा खुल कर सामने आ रही है” इस
तेजी से हो रहे परिवर्तन को प्रतिबिंबित करने वाली निषादों के प्रतिमान में बदलाव
के हो रहा है। निषादों की लेखन साहित्य में आज के समय की पहली जरुरत बनता जा रहा
है और सोशल मीडिया उस जरूरत को पूरा करने की कोशिश कर रहा है।
निषदों के सामाजिक गतिशीलता जिस तेजी से विकसित हो रही है। निषादों के सामाजिक
परिवर्तन में नई तकनीक संवाद को मजबूती प्रदान कर रही है। इस तकनीकी इस समाज के
जीवन के बहुत सारे मुद्दों की व्याख्याएं बहुत तरह से बदल रही हैं। कोई आश्चर्य
नहीं कि निषादों नई तकनीकी से जुड़े है। निषादों के साहित्य आज की पीढ़ी की
समस्याओं के साथ विकसित हो पा रही है। जिस युग में बहुत धीमे- धीमे परिवर्तन होते
थे,
उस युग में भी साहित्य बहुत थोड़े संभ्रांतों के वाक् विलास
का विषय था, सोशल
मीडिया आज हर हाथ में मोबाइल दे दिया, हर टेबल पर लेपटॉप है, हर घर में टीवी है जिसमे राजनीति, खेल और धर्मों के पाखंडों के रोज रोज नए खुलासे होते हैं।
मनु साहित्य में निषादों को अछूत बताना तथा जातीय खेल में निषादों को उपजाति
में विभाजन कर सामंतवादी या ब्रम्हानवादी विचारों से सोशल मीडिया ने आज अवगत करा
रही है इस खिचडी मानसिकता का परिणाम सब तरफ से उभरकर नज़र आ रहा है। ये सब जान गए हैं. ऐसे हालात में कोई भी इन
सामंतवादी या ब्रम्हानवादी पर भरोसा नहीं करना चाहता है। मनु साहित्य, रामायण, महाभारत, में बहुत लम्बे समय से प्रचलित साहित्य की विश्वसनीयता खोती
जा रही है । निषाद के सभी उपजातियों, बिन्द, मल्लाह, केवट,माझी,
मझवार,वेलदार, तुरहा, आदि सभी जातियों ने चले समझ रही है किस तरह से अलग- अलग
जाति बना के मुख्य धारा से अलग रखा गया है। अब नयी पीढी इन राजों को समझ चुकी है।
निषदों ने अपने साहित्य को लिखा जा रहा है वो नयी पीढी ने निषाद आदिवासी अपने नए ढग से समाज के प्रतिमान स्थापित
कर रहा है। सर्वस्पर्शी साहित्य को ढूँढना या परिभाषित करना लगभग असंभव काम, को सोशल मीडिया के माध्यम से निषाद लेखकों साहित्यिक
बाम्बियों को लिख रहा है । ये सब नए समय की अनिवार्य हकीकतें हैं और ये संघर्ष के
नए प्रतिमान स्थापित कर रहे है।
सोशल मीडिया ने एक तरह से निषाद आदिवासी की आँखें खोल दी हैं। राजनीति और सामंतवादी तो इससे परेशान है ही, अब साहित्य के कबीलों ने भी इस हलचल को स्वीकारना शुरू कर
दिया है। निषदों के युवा पीढ़ी ने शिक्षित होने से अपने साहित्य को रचना कर रहा है।
जो किसी ने सांस्कृतिक रूप से कुपोषित कर के रख दिया गया था अपनी संस्कृति, लोकजीवन, मुहावरों, विश्वासों और यहाँ तक की आदिवासी भाषाओं से भी वंचित रखा
गया था ।
किसी समाज का बौद्धिक अभिजात वर्ग ने निषदों के साहित्य और भाषा और संस्कृति
को ही पूरी तरह गलत प्रस्तुति कर कर हाशिये के शिकार बना दिया गया था । ऐसे
में सोशल मीडिया से निषदों ने अपने भाषा, बोली आदि को फिर से मजबूत करने का काम कर रही
है । दुर्भाग्य इससे जुडा है, कि सामंतवादी के साहित्य रचना ने अर्थहीन प्रतिमान स्थापित करने
के कारण ठीक से जड़ नहीं जम पायी है। जिसका कारण है कि साहित्य की बराबरी नहीं कर पाई
है। ये दोहरे दुर्भाग्य हैं, जो हम एक वर्णसंकर संस्कृति की संतानों की तरह झेल रहे हैं।
सोशल मीडिया ने निषदों के संघर्ष और भागीदारी को नये आयाम गढ़ने के काम कर रही है।
निषदों के आवाज देश के हर कोने से आ रही है अब हम लिखेगे इतिहास दूसरे के प्रतिमानो
पर कब तक भरोस करगे । कहानी अब हम कहेगे, विचार-विमर्श करना अब तुम्हारी मजबूरी है ।