आखिर
मछुआ समुदाय को हिन्दू धर्म का परित्याग क्यों करना चाहिए !!!
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मछुआ समुदाय अत्यंत गर्व से कहता है कि वह हिन्दू है. क्यों कहता है ,इसका कोई प्रमाणिक उत्तर उसके पास नहीं है. यह गर्व करने की अनुभूति कौन देता है, यह भी विचारणीय प्रशन है. हमें किस बात का गर्व. हमारे हिन्दू होने अथवा न होने से कौन सा फर्क पड़ता है, यह समझ से परे है. क्या हम उसी हिन्दू धर्म के अनुयायी है जिस धर्म में हमारी गणना सर्वाधिक है मगर हम अश्पर्श्य और दासों जैसा जीवन जी रहे है. जिस धर्म रहते हुए हम गर्व का उद्घोष करते हैं उसी धर्म के कुछ मुट्ठी भर लोगों हमारी संस्कृति पर कुठाराघात करते हैं. जब देवी देवताओं की बात चले तो इस विशाल तबके के पूजनीय पूर्वजों को हाशिये पर धकेल दिया जाता है. यह कैसा हिंदुत्व. मछुआ समुदाय को उसके अधिकारों से वंचित करने के लिए धर्म के मकड़जाल में फांस दिया जाता है. और कहा जाता है को गर्व करो. आपसे राम की पूजा कराएँगे. कृष्ण की रासलीला करायगे. आपकी होली को त्रिस्कृत करेंगे और मछुआ समुदाय हिन्दू -हिन्दू करेगा. यह गर्व की नहीं शर्म की बात है . हम समानता के अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करेंगे तो यही मुट्ठीभर हिन्दू उसमे अडंगा डालने के लिए सबसे अग्रिम पंक्ति में खड़े मिलेंगे. क्या यही हिन्दुत्व है. ऐसे लोगों को भय है कि यदि मछुआ समुदाय को समानता का अधिकार मिल गया तो भविष्य में यह समुदाय हिन्दुत्व की परिधि को पार करके शिखर पर होगा. जहाँ राम और कृष्ण की पूजा नहीं निषादराज, केवट, बाली, एकलव्य और हिरन्यकश्यप पूजनीय होंगे.
अब प्रासंगिक यही है की मछुआ समुदाय को यदि हिन्दू धर्म में निर्विरोध रखना है तो उसे आरक्षण ही नहीं सत्ता की भागीदारी तक सभी वांछित अधिकारों से युक्त करे. यदि यह मुट्ठीभर और हिन्दुत्व का दम भरने वाले ऐसा नहीं कर सकते तो मछुआ समुदाय के पास धर्मपरिवर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचता है. जहाँ मछुआ समुदाय कम से कम एक जाती अथवा एक संस्कृति तो स्थापित हो ही जायेगा. मगर उन मुट्ठीभर लोगों के लिए यह चेतावनी भी है कि यदि मछुआ समुदाय हिन्दुओं की गणना से बहार हुआ तो फिर मुल्क में हिन्दुओं की
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मछुआ समुदाय अत्यंत गर्व से कहता है कि वह हिन्दू है. क्यों कहता है ,इसका कोई प्रमाणिक उत्तर उसके पास नहीं है. यह गर्व करने की अनुभूति कौन देता है, यह भी विचारणीय प्रशन है. हमें किस बात का गर्व. हमारे हिन्दू होने अथवा न होने से कौन सा फर्क पड़ता है, यह समझ से परे है. क्या हम उसी हिन्दू धर्म के अनुयायी है जिस धर्म में हमारी गणना सर्वाधिक है मगर हम अश्पर्श्य और दासों जैसा जीवन जी रहे है. जिस धर्म रहते हुए हम गर्व का उद्घोष करते हैं उसी धर्म के कुछ मुट्ठी भर लोगों हमारी संस्कृति पर कुठाराघात करते हैं. जब देवी देवताओं की बात चले तो इस विशाल तबके के पूजनीय पूर्वजों को हाशिये पर धकेल दिया जाता है. यह कैसा हिंदुत्व. मछुआ समुदाय को उसके अधिकारों से वंचित करने के लिए धर्म के मकड़जाल में फांस दिया जाता है. और कहा जाता है को गर्व करो. आपसे राम की पूजा कराएँगे. कृष्ण की रासलीला करायगे. आपकी होली को त्रिस्कृत करेंगे और मछुआ समुदाय हिन्दू -हिन्दू करेगा. यह गर्व की नहीं शर्म की बात है . हम समानता के अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करेंगे तो यही मुट्ठीभर हिन्दू उसमे अडंगा डालने के लिए सबसे अग्रिम पंक्ति में खड़े मिलेंगे. क्या यही हिन्दुत्व है. ऐसे लोगों को भय है कि यदि मछुआ समुदाय को समानता का अधिकार मिल गया तो भविष्य में यह समुदाय हिन्दुत्व की परिधि को पार करके शिखर पर होगा. जहाँ राम और कृष्ण की पूजा नहीं निषादराज, केवट, बाली, एकलव्य और हिरन्यकश्यप पूजनीय होंगे.
अब प्रासंगिक यही है की मछुआ समुदाय को यदि हिन्दू धर्म में निर्विरोध रखना है तो उसे आरक्षण ही नहीं सत्ता की भागीदारी तक सभी वांछित अधिकारों से युक्त करे. यदि यह मुट्ठीभर और हिन्दुत्व का दम भरने वाले ऐसा नहीं कर सकते तो मछुआ समुदाय के पास धर्मपरिवर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचता है. जहाँ मछुआ समुदाय कम से कम एक जाती अथवा एक संस्कृति तो स्थापित हो ही जायेगा. मगर उन मुट्ठीभर लोगों के लिए यह चेतावनी भी है कि यदि मछुआ समुदाय हिन्दुओं की गणना से बहार हुआ तो फिर मुल्क में हिन्दुओं की
संख्या नाममात्र
को ही रह जायेगी. फिर वही धर्म देश में बहुसंख्यक होगा जिसे मछुआ समुदाय ग्रहण
करेगा.
लेखक
सुरेश कश्यप
Bhai muge ek baat bata ki kya ashparsh kab se ho gye
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