कहार समाज का संक्षिप्त अध्ययन
भारत में तो उपनामों का समंदर है। अनगिनत उपनाम जिन्हें
लिखते-लिखते शायद सुबह से शाम हो जाए। यदि उपनामों पर शोध करने लगे तो कई ऐसे
उपनाम है जो हिंदू समाज के चारों वर्णों में एक जैसे पाए जाते हैं। दरअसल भारतीय
उपनाम के पीछे कोई विज्ञान नहीं है यह ऋषिओं के नाम के आधार पर निर्मित हुए हैं। ऋषि-मुनियों
के ही नाम 'गोत्र'
भी बन गए। कालान्तर में जैसे-जैसे राजा-महापुरुष बढ़े उपनाम भी
बढ़ते गए। कहीं-कहीं स्थानों के नाम पर उपनाम देखने को मिलते हैं।
भारत में यदि उपनाम के आधार पर किसी का इतिहास जानने जाएँगे तो
हो सकता है कि कोई मुसलमान या दलित हिंदुओं के क्षत्रिय समाज से संबंध रखता हो या
वह ब्राह्मणों के कुनबे का हो। लेकिन धार्मिक इतिहास के जानकारों की मानें तो सभी
भारतीय किसी ऋषि, मुनि या मनु की संतानें हैं, चाहे वह किसी भी जाति,
धर्म, वर्ण या रंग का हो।
निषाद(आस्ट्रिक ) निषाद नस्ल के सभी उप जाति है । एक बहुत
पुरानी अनार्य जाति जो भारत में आर्य जाति के आने से पहले निवास करती थी । इस जाति
के लोग शिकार खेलते, मछलियाँ मारते/पकङते/बेचते थे । विशेष —पुराणों में
जिस प्रकार और अनेक अनार्य जातियों की उत्पत्ति के संबन्ध में अनेक प्रकार की
कथाएँ लिखी हुई हैं उसी प्रकार इस जाति की उत्पात्ति के संबन्ध में भी एक कथा है ।
अग्निपुराण मेंलिखा है कि जिस समय राजा वेणु की जाँघ मथी गई थी उस समय उसमें से
काले रंग का एक छोटा सा आदमी निकला था । वही आदमी इस वंश का आपुरुष था मूल रुप से
महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, पश्चिमी उड़ीसा और आंध्र प्रदेश राज्यों के मूल निवासी हैं । महाराष्ट्र
में भोइ(मांझी) मूल रुप से मुंबई मै रह्ते थे नासिक,धुलिया,
जलगांव, अहमदनगर, पुणे,
औरंगाबाद, कोल्हापुर, रत्नागिरी
और महाराष्ट्र के शोलापुर जिलों में एँव मध्यप्रदेश के मन्दसौर ,रामपुरा ,आलोट ,फतेहपूर ,ताल , रतलाम ,सैलाना । वर्तमान
में, भोई समुदाय के लोग पूरे मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र व राजस्थान में निवास करते है। 1947 में भारत
की स्वतंत्रता के बाद, महाराष्ट्र ये में खानाबदोश जनजातियों
की सूची में शामिल किये गये ; महाराष्ट्र में भोई समुदाय को
कुल 22 उप समूहों मे बाटा गया। 13 वीं
सदी के दौरान राजा भीमदेव के शासनकाल मे ये राजस्थान से मुंबई चले गए थे
महाराष्ट्र में,भोई पालकी या डोली वाहक थे। भोई समुदाय को
महाराष्ट्र मे 22 उप समूहो मे बाटा गया है। जो इस प्रकार है
जिन्गा भोई, परदेश भोई, राज भोई,
कहार भोई, गाडिया भोई, धुरिया
कहार भोई, कीरत मछया भोई, हान्जी,
जाति, केवट , धीवर ,
डीन्गर, पालेवर,मच्छिन्द्रा,
हावाडी, हलहार , जाधव
भोई, कोडी भोई, खरे भोई और देवरा भोई।
ये परिजन समूहों में अहिरानी भाषा जबकि दूसरों से मराठी भाषा में बोलते हैं।
गुजरात में भोई सात उप समूहों, अर्थात भोईराज धीमान जिन्गा
भोई या केवट भोई, मच्छिन्द्रा भोई, पालेशवर
भोई, कीरत भोई, कहार भोई, पार्बिशिन भोई और श्रीमाली भोई से मिलकर बनता है। समुदाय पारंपरिक रूप से
मछली पकड़ने मे जुड़े रहे हैं
आर्थीक
बनाम आधुनिकता में कहार
आज इस आधुनिकता जे जाति
नामक संरचना में जहाँ हमारे बुजुर्ग पूरे के पूरे जातीय संरचना में विश्वास कर रहे
थे और उसके बनाए रखने के लिए रस्में और पारंपरिक काय के रूप में बाध के रखने का कम किया गया था वही आज जाति नामक संस्था
आज इस आधुनिकता में बदलाव आ रहा है पुराने रस्में और परंपरा आज टूटने हुएँ नजर आती
है वही पर कुछ समाज को जीने का अधिकार मिल रहा है
जमाने के साथ लोग बदल
गए हैं,
जिससे पुरानी परंपराएं बंद होती जा रही हैं। वाहन आदि से सिर्फ
फिजूलखर्ची बढ़ रही है।' वह कहते हैं कि ‘पालकी और डोली शुभदायक होते हैं, लेकिन लोग अब
दुल्हन को भी ‘मारुति' में विदा कर ले
जाने लगे हैं।' पर, इधर जमाना बदला और
पुरानी परंपराएं व संसाधन भी बदल गए। इतना ही नहीं, तीन दिन
के बजाय अब कुछ घंटे में शादी-विवाह की रश्में भी निपटने लगीं। इस आधुनिकता की
दौड़ में जहां लकड़ी से बनाई जाने वाली ‘पालकी' लम्बरदारों (जमींदार) के घरों में पड़ी धूल फांक रही हैं, वहीं दुल्हन की विदाई के लिए बनाई जाने वाली ‘डोली'
भी कहीं नजर नहीं आती। और तो और ‘पालकी'
व ‘डोली' ढोने वाले कहार
(अति पिछड़ी श्रेणी की एक कौम) देवसरन कहार में बेरोजगार होकर अपने घरों में बैठ
गए हैं। वजह भी साफ है, शादी-विवाह में ईंधन से चलने वाले
वाहनों का प्रयोग होने लगा है। इससे ‘पालकी' और ‘डोली' को ग्रहण सा लग गया
है। बांदा जिले में तेन्दुरा गांव का रहने वाला नत्थू कहार बताता है कि ‘दस साल पहले तक उसका कुनबा सहालग (शादी-विवाह का मौका) में ‘पालकी' और ‘डोली' ढोने में खासी रकम कमा लिया करते थे
चलो रे डोली उठाओं
कहार पिया मिलन की ऋतु आयी। अब ये गाने और डोली, सिनेमा
और किताबों में ही दिखाई पड़ती हैं। पालकी' न 'कहार', दूल्हन कैसे हो 'डोली'
में सवार? फिल्मी गीत ‘पालकी
में होके सवार चली रे, मैं तो अपने साजन के द्वार चली रे'
और ‘चलो डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई' पहले जरूर प्रासंगिक थे तेजी
से बदलते जमाने ने जहां हमारी संस्कृति पर कुठाराघात किया है वही प्राचीन परम्परा
को किस्से कहानियां और इतिहास के पन्नो पर पहंचा दिया हैं। इसी में से एक हैं डोली
और कहार। तीन दषक पूर्व तक वैवाहिक जीवन में प्रवेष करने के लिए दूल्हे डोली में
सवार होकर जाते थे और शादी की रस्म पूरी होने के बाद दूल्हन उसी डोली में बिदा
होकर ससुराल आती थी।
आधुनिकता के बदलते
दौर में दूल्हे के जोड़े जामे की जगह सूट और शेरवानी ने ले लिया और डोली की जगह
लग्जरी गाडि़यों ने ले लिया है। ऐसी स्थिति में अब डोलियां इतिहास के पन्नो पर
पहुंच गयी और कहार रोजी रोटी की जुगाड़ में महानगरों का रास्ता पकड़ लिया हैं।आज इस
आधुनिक में कहार समाज का स्वरूप में भारी परिवर्तन देखने को मिल रहा है जहाँ पर बड़े
लोग या संवर्ण परिवार के शादी विवाह के दूल्हे और दुल्हन को पालकी में लाने और ले जाने
का काम सीमित था
संजय कहार से बातचीत करने
पर पता चला की जब हमारा पारंपरिक व्यवसाय के रूप में डोली को धोने तक सीमित था उसके
एवज में कुछ पैसा मिल जाता था लेकिन उस पालकी (डोली ) को ढोने के बाद कई दिन तक कंधे
को गरम पानी से धोना पड़ता था और ज्यादा दर्द होने पर दवा लेना पड़ता था आज महानगरों
में काम करने का आसानी से परिवार को सँभाल लिया और आज हमारे भी बच्चे शिक्षित हो रहे
है उस पारंपरिक कार्य ने तो जीने का अधिकार ही छीन लिया था आज इस आधुनिक में आज बराबरी
के हमारे बच्चे भी महसूस करने लगे है
' दलित समाज
के चिंतक संत सत्बोध दाता साईं का विचार उनसे उलट है। वह कहते हैं कि ‘पालकी और डोली की सवारी दलित समाज के दूल्हा और दुल्हन को वर्जित थी,
ग्रामीण क्षेत्र में इस समाज के दूल्हे की निकासी ‘पैदल' होती थी और दुल्हन की विदाई ‘सग्गर' से की जाने की परंपरा रही है, कम से कम आधुनिकता ने दलित समाज को बराबरी का दर्जा तो दिया है।'
आरक्षण के माँग –
कहार समाज जिस पारंपरिक
कार्य में बाध के रखा गया था और जीने के अधिकार से बंचीत रह गए थे आज कई प्रदेशों में
मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश कई जिलों में आरक्षण के माँग कर रहे है। कारण है की उसे
हसिए के समाज के रूप में बना कर रखा गया था आज वह जब सामाजिक न्याय के तहत अपना अधिकार
माँग रहे फिर भी उसे आरक्षण नहीं मिल पा रहा है जो इस आरक्षण के माध्यम से मुख्य धारा
में जुड़ने का मैका मिल जाता लेकिन सरकार की मनसा समझ में नहीं इस समाज को हसिए के समाज
बना के रखना चाहती है ।
निष्कर्ष
–
निषाद (आस्ट्रिक )नस्ल के जातियों के आधुनिक में
बराबरी महसूस कर रही है लेकिन आज बड़े लोगों को मानना है की हमारी परंपरा और रस्में
और प्रथा टूट रही है इस आधार पर तो यही लग रहा है की जो जाति के रूप में बना है हसिए
के समाज बन कर रहे ......आप के सुझाव आमत्रित है
लेखक
बलराम बिंद
शोधार्थी – (बलराम बिंद (महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय
हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा )
मो- 07709623388
कहार केवल डोली उठाकर ढ़ोते नहीं थे।या पानी नहीं लाते थे पुराने ज़मानेमें बराते लुटी जाती थी।दुल्हन को दुल्हे के साथ संपत्ति,सोना-चाँदी पैसों के साथ सुरक्षित अपने ससुराल कहार पहुचाते थे।ईमानदार,हर संकट का मुकाबला कर अपना कर्तव्य निभानेवाला कहार। योद्धा भी था और सभी संकट को पार करने की क्षमता रखनेवाला समाज है।हम नए जमानेमें खुद को ही भूल गए है।
ReplyDeletekahar maha parakrami aur veer yodha hua karte the ye apne jan ki parwah kiye bina dakuo choro se ladte the kahar dheewar wansh ke log barman wansh chandra wanshi kshtri the .
DeleteJay kahar
Deleteकहार समाज के लोकगीतों का अध्ययन यह विषय मैने एम। फील के लिए लिया है कृपया मुझे कॉल कीजिए
Deletebihar ke kahar apna jati me chandrawanshi kahar likhta hai aur apne sabhawo me chandrawanshi kshatriya ka prayog krta hai aur apne aap ko jarasandh ka wansaj batata hai to kya jarasandh ek chandrawanshi kshatriya ke jagah kahar the ? ye dono jati samaj me aasman aur jamin ki tarah alag-alag hai, fir jarasadh ko apna purwaj manane wala kahar, kahar kaise ho sakta hai ? kya ye sab aarakchhan pane ke liye kshatriya ke jagah kahar likh kr sarkar ko dokha de rhe hai
ReplyDeletebihar me apne aap ko chandrawanshi kahar kahne wale log hai to fir jarasandh ke wansaj kaha gaye, kaha gaye magadh ke chandrawanshi kshatriya ? Jarasandh ek chandrawanshi kshatriya the aur woska wansaj kahar kaise ho sakta hai ? jis prakar raat aur din alag-alag hai wosi prakar, kahar aur kashatriya samaj me do alag-alag jati hai, fir chandrawanshi kshatriya se koi chandrawanshi kahar kaise ho sakta hai ?
ReplyDeleteBhai aap history padho yh Jo kahar tag LGA h Na 1303 year ke bd LGA h ise phle kahar Nam tha hi yh chtriya the us time daku se bachane ke lye ek team jati the Jo sahi salmt dulhen ko apne jgh pahunchati the but us time kuch grib the apne roji roti ke lye palki uthane ka v km krne lge yh sb ke Karen hi inko kahar ka tag LGA dye sb but yh h jrasandh ke hi vanshanj
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ReplyDeleteSir mujhe chhattisgarh kahar samaj m registration krana h koi number de skta h
ReplyDeleteJai kahar
ReplyDeleteChandravanshi ke khilaf bolne wale bahanchod
Deleteबहुत महत्वपूर्ण जानकारी है...💐💐
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