भारतीय समाज और अर्थव्यस्था के लिए अनेक ऐसी योजनाएं है। जिन
पर ध्यान दिया जाना जरूरी। ये योजनाएं गरीबी कम करने के बनाई गई है। केवल यह योजन
ही बन कर रह गई है। देश के आजाद के 65 वर्षों हो गाएँ है आजादी के के
मतलब मात्र अग्रेजों के हाथ से केंद्र और राज्य में सत्ता का हस्तांतरण मात्र
आजादी नहीं है। देश में आज हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है और कमजोर गर्भवती
माओं से कुपोषण बच्चों स्थानतरित हो रहा हो तो आबादी के दो तिहाई लोगों 70 प्रतिशत
आबादी के पेट भर खाने का इतजाम नहीं है बिश्व बैंक के अनुसार ये सभी गरीवी रेखा से
नीचे है । अधिकांश लोग 26 रुपया भी प्रतिदिन नहीं जुटा पाते है।
योजना भवन में बैठे बाबू लोग देश के विकास की परियोजन बना रहे
है विना यह जाने की जमीनी स्तर की स्थितिया क्या है या और क्या होनी चाहिए समस्या
यह है की योजना लबे समय से चली आ रही है जो भी योजना चली आ रही है आम घर और समाज
के संवेदनशील तबके दोनों है उल्लेखनीय है की अन्य गरीबी निवारक योजनाओं का अच्छा
परिणाम देखने को नहीं मिला है ।
आज तेजी से आर्थिक विकास और किसका
आर्थिक विकास हो रहा है। शहरी करण की वजह से भी हमारे यहाँ कई नई कमजोर तबके उभर
कर सामने आएं इनमें झुग्गी-बस्तीयों, कमजोर वर्ग, हमारे संसाधन पर केंद्र नियत्रण है जहां से
टपकती हुई सुविधाएं 6.25 गांवों तक पहुचती है। जीवन
जीने के आधारभूत जो जरूरत है। जो गाँव और कमजोर शहरी 66 करोड़ लोगों तक नहीं
सही से नहीं पहुच पा रहीं है ।जब की
संसाधनों का बड़ा हिस्सा 1400,000,करोड़ों, इन्हीं इलाकों से इकठ्ठा किया जाता है
और बाद में राज्य और केंद्र आपस में बाँट लेते है ।
केंद्र सरकार द्रारा विभिन्न योजनाओं है। जबकि योजनाओं का के
सबसे बड़ी खामी यह होती है की जो भी योजन बनती उसका प्राथमिक लागत के आकलन किया
जाता है। यह लागत दरअसल योजना पर होने वाला प्राथमिक खर्च होती है। अन्य खर्च का
आकलन भूल जाते है। जिसका कारण योजना, योजना बन कर रह जाती है गरीबों तक नहीं पहुच पा रहा
है ।
आज सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, मानवा अधिकार, आदि नियम कानून होने के वावजूद भी आम
जनता के पास न तो शिक्षा पहुच पा रही है न ही गरीबी दूर हो रहीं है है । इस अधिकार
के लड़ाई में ‘भोजन का अधिकार’ कहा तक कारगर हो सकता है।
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