सभी युवक, युवक
नहीं होते। सभी बूढे, बूढ़े नहीं होते। जिसे युवक होने की
कला आती है, वह बूढ़ा होकर भी युवक होता है। और जिसे युवक
होने की कला नहीं आती, वह युवक होकर भी बूढ़ा ही होता है।
तो पहले तो इस सत्य को समझने की कोशिश करो कि युवा होना क्या है!
तुम अब भी द्रोणाचार्य जैसे व्यक्तियों को सम्मान दिए चले जाते हो! और अब भी बड़े मनोभाव से एकलव्य की कथा पढ़ी जाती है और तुम बड़ी प्रशंसा करते हो एकलव्य की! लेकिन तुम निंदा द्रोण की नहीं करते। जब की निंदा द्रोण की करनी चाहिए। यह आदमी क्या गुरु होने के योग्य है? इसने एकलव्य को इसलिए इनकार कर दिया कि वह शूद्र था, शिष्य बनाने से इनकार कर दिया! और ये सतयुग के गुरु, महागुरु! और इस आदमी की बेईमानी देखते हो! पहले तो उसे इनकार कर दिया और फिर जब वह जाकर जंगल में इसकी मूर्ति बना कर के धनुर्धर हो गया, तो यह दक्षिणा लेने पहुंच गया। शर्म भी न आई! जिसको तुमने शिष्य ही स्वीकार नहीं किया, उससे दक्षिणा लेने पहुंच गए! और दक्षिणा भी क्या मांगा-दांए हाथ का अंगूठा मांग लिया। क्योंकि इस आदमी को डर था कि एकलव्य इतना बड़ा धनुर्धर हो गया है कि कहीं मेरे शाही शिष्य अर्जुन को पीछे न छोड़ दे! कहीं शूद्र क्षत्रियों से आगे न निकल जाए! इस बेईमान, चालबाज आदमी को तुम अब भी गुरु कहे चले जाते हो! द्रोणाचार्य! अब भी आचार्य कहे चले जाते हो। जगह-जगह इसके, जैसे रावण को जलाते हो, ऐसे द्रोणाचार्य को जलाना चाहिए। रावण ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? रावण ने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।
और एकलव्य की भी मैं प्रशंसा नहीं कर सकता। जब गुरु द्रोण पहुंचे थे लेने अंगूठा, तब अंगूठा बता देना था, देने का सवाल ही नहीं है। यह भी क्या युवा था! पिटाई-कुटाई न करता, चलो ठीक है; इनकी नाक नहीं काटी, ठीक है। लेकिन कम से कम अंगूठा तो बता सकता था। अगूंठा दे दिया काट कर!
और सदियों से फिर इसकी प्रशंसा की जा रही है। अब भी स्कूलों में पाठ पढ़ाया जा रहा है कि अहा, एकलव्य जैसा शिष्य चाहिए! कौन पढ़ा रहे हैं? तुम्हारे शिक्षक, गुरु, अध्यापक, प्रोफेसर, वे सब पढ़ा रहे हैं-एकलव्य जैसा शिष्य चाहिए! ये सब तुम्हारा अंगूठा काटने के लिए उत्सुक हैं। इनको मौका मिले तो तुम्हारी गर्दन काट लें। जेब तो काटते ही हैं। और ये प्रशंसा कर रहे हैं! और तुम भी...और फिर तुम कहे जाते हो कि युवा हो।
तुम अब भी द्रोणाचार्य जैसे व्यक्तियों को सम्मान दिए चले जाते हो! और अब भी बड़े मनोभाव से एकलव्य की कथा पढ़ी जाती है और तुम बड़ी प्रशंसा करते हो एकलव्य की! लेकिन तुम निंदा द्रोण की नहीं करते। जब की निंदा द्रोण की करनी चाहिए। यह आदमी क्या गुरु होने के योग्य है? इसने एकलव्य को इसलिए इनकार कर दिया कि वह शूद्र था, शिष्य बनाने से इनकार कर दिया! और ये सतयुग के गुरु, महागुरु! और इस आदमी की बेईमानी देखते हो! पहले तो उसे इनकार कर दिया और फिर जब वह जाकर जंगल में इसकी मूर्ति बना कर के धनुर्धर हो गया, तो यह दक्षिणा लेने पहुंच गया। शर्म भी न आई! जिसको तुमने शिष्य ही स्वीकार नहीं किया, उससे दक्षिणा लेने पहुंच गए! और दक्षिणा भी क्या मांगा-दांए हाथ का अंगूठा मांग लिया। क्योंकि इस आदमी को डर था कि एकलव्य इतना बड़ा धनुर्धर हो गया है कि कहीं मेरे शाही शिष्य अर्जुन को पीछे न छोड़ दे! कहीं शूद्र क्षत्रियों से आगे न निकल जाए! इस बेईमान, चालबाज आदमी को तुम अब भी गुरु कहे चले जाते हो! द्रोणाचार्य! अब भी आचार्य कहे चले जाते हो। जगह-जगह इसके, जैसे रावण को जलाते हो, ऐसे द्रोणाचार्य को जलाना चाहिए। रावण ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? रावण ने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।
और एकलव्य की भी मैं प्रशंसा नहीं कर सकता। जब गुरु द्रोण पहुंचे थे लेने अंगूठा, तब अंगूठा बता देना था, देने का सवाल ही नहीं है। यह भी क्या युवा था! पिटाई-कुटाई न करता, चलो ठीक है; इनकी नाक नहीं काटी, ठीक है। लेकिन कम से कम अंगूठा तो बता सकता था। अगूंठा दे दिया काट कर!
और सदियों से फिर इसकी प्रशंसा की जा रही है। अब भी स्कूलों में पाठ पढ़ाया जा रहा है कि अहा, एकलव्य जैसा शिष्य चाहिए! कौन पढ़ा रहे हैं? तुम्हारे शिक्षक, गुरु, अध्यापक, प्रोफेसर, वे सब पढ़ा रहे हैं-एकलव्य जैसा शिष्य चाहिए! ये सब तुम्हारा अंगूठा काटने के लिए उत्सुक हैं। इनको मौका मिले तो तुम्हारी गर्दन काट लें। जेब तो काटते ही हैं। और ये प्रशंसा कर रहे हैं! और तुम भी...और फिर तुम कहे जाते हो कि युवा हो।
लेखक
डॉ पवन खरवार
No comments:
Post a Comment