भारतीय इतिहास में सबसे
ज्यादा विवादस्पद है। 19 वीं सदी में स्त्री की बुरी स्थिति को ब्रिटीशों ने भारतीय
असभ्यता का प्रबल सबूत माना था। शिकार-संग्रह वाले समाज में स्त्री की प्रजनन क्षमता
काफी मूल्यवान मानी जाती थी,कारण
समुदाय का अस्तित्व इस पर निर्भर था, कटोटिया,
भीमबेटका
और खखई (सभी मध्य भारत में )से प्राप्त प्रागैतिकहासिक चित्रों में स्त्री की यौनिकता
को उनके अस्तित्व का अभिन्न अंग माना
गया है। इस तरह से शिकार-संग्रह इकानामी में स्त्री के प्रजनक रूप और उत्पादक रूप से
पुरुषों से अलग नहीं है। एक एक विद्वान ने समाज के इस अवस्था को मैट्रस्टिक नाम दिया
है, जिसमें कोई भी स्त्री किसी पुरुष या अन्य
स्त्री की सत्ता के अधीन नहीं थी ऐसे समाज में स्त्री यौनिकता पर पुरुष के नियंत्रण
की जरूरत नहीं रही होगी।
लर्नर ने मैसोपोटामिया में मिले साक्ष्यों (पुरातात्विक और लिखित दोनों) के
आधार पर पितृसत्ता की उत्पत्ति और उसके गठन के विभिन्न अवस्थावों का जिस भांति रेखांकन
किया है, उससे तो यही इंगित होता है की स्त्री की
यौनिकता पर किसी न किसी रूप में समुदाय,वंश या राजसत्ता का नियंत्रण
प्राक-राज्यों के सामाजिक गठन का एक पहलू था इस आधार पर मान कर चला जा सकता की हड़प्पा
में भी ऐसा रहा होगा।
शायद समय आ गया है कि निषाद (मछुआ ) समाज या शिकार करने वाल समाज में आज हिन्दू
समाज में अभी भी जाति कि भूमिका केंद्रीय और नियमाक कि है। जाति आधारित भेदभाव नस्ल
आधारित असामानता के मामले में उची जाति के विशेषाधिकार प्रदान किया गया है, आज भी भारतीय समाज में उच्च और निम्न जाति
दोनों ही जातियों कि वास्तविक जीवन शैली और प्राचीन ब्रामहनवादी शास्त्रों (जो आज भी
‘पवित्र’ माने जाते है ) में बताए गए निर्देशों
के बीच विरोधाभाष नहीं है, आज भी उसी आधार पर माना जाता है संविधान
में जिस समानता की बात की गई है। उसके बाद भी शास्त्र मानदंड बने हुए है। कारण है लोग
(निम्न जाति और उच्च जाति ) के इसे परंपरा के संरक्षण के रूप लेते ।
इस जाति वेवस्था में निषाद (मछुआ समाज ) के दलित पिछड़ा महिलावों के साथ शैक्षिक
और रूप से शिक्षा से दूर होने के कारण और जाति के नाम पर आए दिन शोषण के शिकार होती
है। जाति बनाकर शिक्षा से दूर किया गया और उसे पितृसता के माध्यम से घरों में कैद कर
के रखने की कोशिश किया और शोषित किया। जब गांवों में जब मछुआ समुदाय के महिलावों के
घूघट उसके चेहरे पर ढाका हुआ था। जब पूछा तो
बताया गया के ये बड़े के सम्मान के रूप में किया जाता है। और हिन्दू के परंपरा है। जो
मनुष्य इस दुनिया में आया है और उसके चेहरे को आज भी छुपाने और परंपरा बनी हुई है।
शिकार करने वाले समाज की जो परंपरा
थी। महिलावों के समान अधिकार के परंपरा थी। वह आज जाति और पितृसत्ता के रूप में सिमट
कर रह गई है, जय निषाद –जय भारत
लेखक
बलराम बिन्द
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