इस वीरांगना के नाम पर आज भी गुलजार है बिलासपुर
छत्तीसगढ़ में बिलासा एक देवी के रुप में देखी जाती हैं.
कहते हैं कि उनके ही नाम पर बिलासपुर शहर का नामकरण हुआ। बिलासा केवटिन की एक आदमक़द प्रतिमा भी शहर में
लगी हुई है। बिलासा देवी के लिए छत्तीसगढ़ के लोगों में, ख़ासकर केवट समाज में, बड़ी श्रध्दा है और इसका एक सबूत यह भी है कि छत्तीसगढ़ की
सरकार हर वर्ष मत्स्य पालन के लिए बिलासा देवी पुरस्कार भी देती है।
भारतीय सभ्यता का प्रजातिगत इतिहास
निषाद, आस्ट्रिक या कोल-मुण्डा से आरंभ माना जाता है। यही
कोई चार-पांच सौ साल पहले, अरपा नदी के किनारे, जवाली नाले के संगम पर पुनरावृत्ति घटित हुई। जब यहां निषादों के
प्रतिनिधि उत्तराधिकारियों केंवट-मांझी समुदाय का डेरा बना। आग्नेय कुल का नदी
किनारे डेरा। अग्नि और जल तत्व का समन्वय यानि सृष्टि की रचना। जीवन के लक्षण
उभरने लगे। सभ्यता की संभावनाएं आकार लेने लगीं। नदी तट के अस्थायी डेरे, झोपड़ी में तब्दील होने लगे। बसाहट, सुगठित बस्ती का
रूप लेने लगी। यहीं दृश्य में उभरी, लोक नायिका- बिलासा
केंवटिन। बिलासा केवटीन का गांव आज बिलासपुर जिले के नाम से विख्यात है।
बिलासा देवी एक वीरांगना थीं. सोलहवीं
शताब्दी में जब रतनपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी हुआ करती थी तो राजा कल्याण सहाय
बिलासपुर के पास शिकार करते हुए घायल हो गए थे. उस समय बिलासा केवटिन ने उन्हें
बचाया था. इससे खुश होकर राजा ने उन्हें अपना सलाहकार नियुक्त करते हुए नदी किनारे
की जागीर उनके नाम लिख दी थी."
आज से लगभग 300 साल पहले बिलासपुर शहर नहीं था । निषाद संस्कृति के लोग नदी के किनारे
बसा कराते थे। आखेटवाजी से आपना जीवन को एक दिशा देने के लिए काम करते थे अपने
जीवना के पारंपरिक कार्यों में आयें दिन जगलों में निवास के साथ जीवन उपार्जन के
लिए शिकार के साथ मछली मारने के काम करते थे। उस समय की बात है जब छत्तीसगढ़
को रतनपुरा के नाम से जाना जाता था । आरपा
नदी के किनारे बसे निषाद संस्कृति के लोग में विलासा भी रहा करती थे निषाद
संस्कृति में महिला और पुरुष को समान अधिकार था तो एक दूसरे के साथ मिलकर शिकार
करते थे। चाहे वह मछली मारना हो या जंगल के रक्षा करना हो। बंशी नामक युवक ने एक
बार बिलासा को पानी ने डूबने से बचाया था तब से बंसी और बिलासा दोनों साथ रहते थे ।
एक बार की बात है जब सभी लोग शिकार करने
के लिए गए थे तो गाँव में कुछ महिला बच गई थी। उसी समय जंगली सुअर ने हमला कर दिया
था । तब विलास ने उसे मारने का काम किया। तब से विलासा का नाम पूरा गाँव में फैल.......उस
समय कल्याण्साय के राजा ने एक बार शिकार करने के लिए गया और घनघोर जंगल में चला गया
और सिपाही पीछे छुट गए राजा एकेला पड़ गया । कुछ देर बाद प्यास लगाने के बाद नदी के किनार जाने लगा । तब तक जंगली सुअर ने उसे
घायल कर दिया वह बड़ी ज़ोर ज़ोर से कराह रहा था । उस समय बंसी ने उसी रास्ते से आ रहा
था घायल देख राजा को गाँव ले गया । विलासा ने उसे बहुत सेवा किया । राजा के ठीक हो
जाने के बाद बिलासा और बंसी को साथ ले गया जहाँ पर बिलासा ने धनुष चला कर अपना करतब
दिखाया । तो बंसी ने भला फेक कर दिखाया । बिलासा ने खाली हाथ नहीं लौटा जागीर ले कर
लौटी । जो आज धीरे –धीरे । नगर के रूप ले लिया
। उसे विलसा पुर के नाम से जाना जाता है
प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा शहर आज महानगर
का रूप ले रहा है। कलचुरीवंश की राजधानी रतनपुर बिलासपुर जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर की दूरी पर
स्थित है। यहां महामाया देवी का मंदिर है। जो कि धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में
विख्यात है। जिले के बाहरी सीमाएँ रायपुर,दुर्ग,जांजगीर , आदि है । जिले
की स्थापना 18मई 1998 में किया गया ।
इसी तरह 'बिलासा केंवटिन' काव्य,
संदिग्ध इतिहास नहीं, बल्कि जनकवि-गायक
देवारों की असंदिग्ध गाथा है, जिसमें 'सोन
के माची, रूप के पर्रा' और 'धुर्रा के मुर्रा बनाके, थूंक मं लाड़ू बांधै'
कहा जाता है। केंवटिन की गाथा, देवार गीतों के
काव्य मूल्य का प्रतिनिधित्व कर सकने में सक्षम है ही, केंवटिन
की वाक्पटुता और बुद्धि-कौशल का प्रमाण भी है। गीत का आरंभ होता है-
छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे
सिंगार।
खोपा पारै रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।
मारय पानी बिछलय बाट, ठमकत केंवटिन चलय बजार।
आन बइठे छेंवा छकार, केंवटिन बइठे बीच बजार।
सोन के माची रूप के पर्रा, राजा आइस केंवटिन करा।
मोल बिसाय सब कोइ खाय, फोकटा मछरी कोइ नहीं
खाय।
कहव केंवटिन मछरी के मोल, का कहिहौं मछरी के मोल।
आगे सोलह प्रजातियों- डंडवा, घंसरा, अइछा, सोंढ़िहा, लूदू, बंजू, भाकुर, पढ़िना, जटा चिंगरा, भेंड़ो, बामी,
कारीझिंया, खोकसी, झोरी,
सलांगी और केकरा- का मोल तत्कालीन समाज की अलग-अलग जातिगत स्वभाव की
मान्यताओं के अनुरूप उपमा देते हुए, समाज के सोलह
रूप-श्रृंगार की तरह, बताया गया है। सोलह प्रजातियों का 'मेल' (range), मानों पूरा डिपार्टमेंटल स्टोर।
लेकिन जिनका यहां नामो-निशान नहीं अब ऐसी रोहू-कतला-मिरकल का बोलबाला है और इस
सूची की प्रजातियां, जात-बाहर जैसी हैं। जातिगत स्वभाव का
उदाहरण भी सार्वजनिक किया जाना दुष्कर हो गया क्योंकि तब जातियां, स्वभावगत विशिष्टता का परिचायक थीं। प्रत्येक जाति-स्वभाव की समाज में
उपयोगिता, अतएव सम्मान भी था। जातिगतता अब सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक प्रस्थिति का हथियार बनकर, सामाजिक सौहार्द्र के लिए दोधारी छुरी बन गई है अन्यथा सुसकी, मुरहा, न्यौता नाइन, गंगा
ग्वालिन, राजिम तेलिन, किरवई की धोबनिन,
धुरकोट की लोहारिन, बहादुर कलारिन के साथ
बिलासा केंवटिन परम्परा की ऐसी जड़ है, जिनसे समष्टि का
व्यापक और उदार संसार पोषित है।
अरपा-जवाली संगम के दाहिने, जूना बिलासपुर और किला बना
तो जवाली नाला के बायीं ओर शनिचरी का बाजार या पड़ाव, जिस
प्रकार उसे अब भी जाना जाता है। अपनी परिकल्पना के दूसरे बिन्दु का उल्लेख यहां
प्रासंगिक होगा- केंवट, एक विशिष्ट देवी 'चौरासी' की उपासना करते हैं और उसकी विशेष पूजा का
दिन शनिवार होता है। कुछ क्षेत्रों में सतबहिनियां के नामों में जयलाला, कनकुद केवदी, जसोदा, कजियाम,
वासूली और चण्डी के साथ 'बिलासिनी' नाम मिलता है तो क्या देवी 'चौरासी' की तरह कोई देवी 'बिरासी', 'बिरासिनी'
भी है या सतबहिनियों में से एक 'बिलासिनी'
है, जिसका अपभ्रंश बिलासा और बिलासपुर है। इस
परिकल्पना को भी बौद्धिकता के तराजू पर माप-तौल करना आवश्यक नहीं लगा।
आज भी बिलासा नामक वीरांगना के नाम पर कालेज
बनाकर अलग अलग रूपों में पूरा सम्मान दिया जा रहा है।, कालेज ,अस्पताल , रंगमंच, पार्क आदि है
निषाद संस्कृति के सभी उप जातियों के लिए सम्मान
के साथ यह कहने के लिए नहीं थकते है की बिलासपुर निषाद संस्कृति के पहचान के आयाम के
रूप में है । निषाद संस्कृति को आज हम सब को तालस करने की जरूरत है। निषाद संस्कृति
अपने देश के आगे बढ़ाने में महत्तवपूर्ण भूमिका के साथ देश को विकास में सर्वपरी योगदान
है ।
साहस और कर्तव्य निष्ठता की प्रतीक बिलासा
देवी ।
के जीवन संघर्ष से हमें प्रेरणा लेने की जरूरत
है ।।
जय निषाद संस्कृति ---जय भारत
लेखक
बलराम बिन्द
thank balram bind ji
ReplyDeletekashyap samajj ke parti kuchh to karte rahana hi bhi
ReplyDeleteThanks For Informative Artcle for Nishad Community
ReplyDeletearticle informative to hai, lekin iski pramanikta kaya hai. sandarbha diye hite to behtar hota.
ReplyDeleteManohar Gaur, Chief Sub Editor, Lokmat Samachar, Nagpur
important details for Nishad comunity.. thanks
ReplyDeleteजय निषाद राज
ReplyDeleteमुझे बहुत खुशी है कि आप लोग हमारी संस्कृति पर आर्टिकल लिख रहे हैं और लोगों को जागरूक कर रहे हैं
ReplyDeleteThank to Balram Bind ji for represent Kewat society. I feel very proud
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