कविता - विकास चन्द्र
सूर्य....
हर किसी के भीतर होता
है एक सूर्य
हर कोई महसूस करता है
सूरज की तपन
और उबल जाता है वह अपनी
ही ताप से
मगर सूरज हमेशा तपता ही
नहीं रहता
सूर्यास्त के बाद यही
रवि चाँद के रूप में दिखने लगता है
और एक नए रूप व रंग में
देने लगता है सुकून
इसी तरह बालक हमेशा छोटा
ही नहीं रहता
समय के साथ बढ़ता है उसका
शरीर
बदलने लगती हैं उसकी भावनाएँ
कि लड़कपन छोडने लगता है
उसका दामन
सताने लगती है उसे ज़िंदगी
की टीस
कि समाज उसे धकेल देता
है परिपक्वता की ओर
और वह प्रवेश कर जाता
है दुनिया के मेले में
वो मेला जो लोगों से भरा
होने पर भी
हर वक्त तनहाई का एहसास
कराता है
सभी फोटो - बलराम बिन्द
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