Thursday, December 26, 2013

देख अपनों के साथ कैसा तमासा

                            देख अपनों के साथ कैसा तमासा                                       
                                                                                    लेखक
                                                                           डॉ संजय निषाद
जन्म - महाभारत काल
मृत्यु - यदुवंशी श्रीकृष्ण द्वारा छल से
पिता - महाराज हिरण्यधनु
माता - रानी सुलेखा
बचपन का नाम - अभिद्युम्न ( अभय )
जीवन से शिक्षा -
1. अपने लक्ष्य के प्रति लगन होना
2. समस्याओँ से डट कर सामना करना
3. माता पिता और गुरू का आदर करना
4. मन लगाकर परिश्रम करना
आदि आदि
एकलव्य निषाद वंश के राजा थे l
निषाद वंश या जाति के संबंध मेँ सर्वप्रथम उल्लेख "तैत्तरीय संहिता" मेँ मिलता है जिसमेँ अनार्योँ के अंतर्गत निषाद आता है l
"एतरेय ब्राह्मण" ग्रन्थ उन्हेँ क्रूर कर्मा कहता है और सामाजिक दृष्टि से निषाद को शूद्र मानता है l
महाभारत काल मेँ प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश मेँ सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य एकलव्य के पिता निषादराज हिरण्यधनु का था l गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी 
उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्योँ के समकक्ष थी l निषाद हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी l
निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा के स्नेहांचल से जनता सुखी व सम्पन्न थी l राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था l
निषादराज हिरण्यधनु को रानी सुलेखा द्वारा एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम "अभिद्युम्न" रखा गया l प्राय: लोग उसे "अभय" नाम से बुलाते थे l
पाँच वर्ष की आयु मेँ एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरूकुल मेँ की गई l
बालपन से ही अस्त्र शस्त्र विद्या मेँ बालक की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक का नाम "एकलव्य" संबोधित किया l
एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दियाl
एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था l उस समय धनुर्विद्या मेँ गुरू द्रोण की ख्याति थी l पर वे केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते थे और शूद्रोँ को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे l
महाराज हिरण्यधनु ने एकलव्य को काफी समझाया कि द्रोण तुम्हे शिक्षा नहीँ देँगेl 
पर एकलव्य ने पिता को मनाया कि उनकी शस्त्र विद्या से प्रभावित होकर आचार्य द्रोण स्वयं उसे अपना शिष्य बना लेँगेl
पर एकलव्य का सोचना सही न था - द्रोण ने दुत्तकार कर उसे आश्रम से भगा दियाl
एकलव्य हार मानने वालोँ मेँ से न था और बिना शस्त्र शिक्षा प्राप्त तिए वह घर वापस लौटना नहीँ चाहता थाl
एकलव्य ने वन मेँ आचार्य द्रोण की एक प्रतिमा बनायी और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगाl शीघ्र ही उसने धनुर्विद्या मेँ निपुणता प्राप्त कर ली l 
एक बार द्रोणाचार्य अपने शिष्योँ और एक कुत्ते के साथ उसी वन मेँ आएl उस समय एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थेl 
कुत्ता एकलव्य को देख भौकने लगाl एकलव्य ने कुत्ते के मुख को अपने बाणोँ से बंद कर दियाl कुत्ता द्रोण के पास भागाl द्रोण और शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य मेँ पड़ गएl
वे उस महान धुनर्धर की खोज मेँ लग गए
अचानक उन्हे एकलव्य दिखाई दिया
जिस धनुर्विद्या को वे केवल क्षत्रिय और ब्राह्मणोँ तक सीमित रखना चाहते थे उसे शूद्रोँ के हाथोँ मेँ जाता देख उन्हेँ चिँता होने लगीl तभी उन्हे अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के वचन की याद आयीl
द्रोण ने एकलव्य से पूछा- तुमने यह धनुर्विद्या किससे सीखी?
एकलव्य- आपसे आचार्य
एकलव्य ने द्रोण की मिट्टी की बनी प्रतिमा की ओर इशारा कियाl
द्रोण ने एकलव्य से गुरू दक्षिणा मेँ एकलव्य के दाएँ हाथ का अगूंठा मांगाl
एकलव्य ने अपना अगूंठा काट कर गुरु द्रोण को अर्पित कर दिया l
कुमार एकलव्य अंगुष्ठ बलिदान के बाद पिता हिरण्यधनु के पास चला आता है l
एकलव्य अपने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या मेँ पुन: दक्षता प्राप्त कर लेता हैl
आज के युग मेँ आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओँ मेँ अंगूठे का प्रयोग नहीँ होता है, अत: एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगाl
पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता हैl अमात्य परिषद की मंत्रणा से वह न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित करता है और अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार करता हैl
इस बीच मथुरा नरेश कंस के वध के बाद, कंस के संबंधी मगध नरेश जरासन्ध शिशुपाल आदि के संयुक्त हमलोँ से भयभीत श्रीकृष्ण मथुरा से अपने भाई बलराम व बंधु बांधवोँ सहित पश्चिम की ओर भाग रहे थेl
तब निषादराज एकलव्य ने श्रीकृष्ण की याचना पर तरस खाकर उन्हेँ सहारा व शरण दियाl 
( अधिक जानकारी के लिए पेरियार ललई सिँह यादव द्वारा लिखित एकलव्य नामक पुस्तक पढ़ेँ )
एकलव्य की मदद से यादव सागर तट पर सुरक्षित भूभाग द्वारिका मेँ बस गएl
यदुकुल ने धीरे धीरे अपनी शक्तियोँ का विस्तार किया और यादवोँ ने सुरापायी बलराम के नेतृत्व मेँ निषादराज की सीमाओँ पर कब्जा करना प्रारम्भ कर दियाl
इसी बीच श्रीकृष्ण ने अपनी नारायणी सेना (प्रच्छन्न युद्ध की गुरिल्ला सेना) भी गठित कर ली थीl
अब यादवी सेना और निषादोँ के बीच युद्ध होना निश्चित थाl
यादवी सेना के निरंतर हो रहे हमलोँ को दबाने के लिए एकलव्य ने सेनापति गिरिबीर के नेतृत्व मेँ कई बार सेनाएँ भेजीँl पर यादवी सेनाओँ का दबाव बढ़ता जाता हैl
तब एकलव्य स्वयं सेना सहित यादवी सेना से युद्ध करने के लिए प्रस्थान करते हैँl
बलराम और एकलव्य की सेना मेँ भयंकर युद्ध होता है और बलराम की पराजय होती हैl
बलराम और यादवी सेना को पराजित कर एकलव्य विजय दुंदुभी बजाते हैँ, तभी पीछे से अचानक कृष्ण की नारायणी सेना जो कहीँ बाहर से युद्ध कर लौटी थी, एकलव्य पर टूट पड़ती है l
एकलव्य इस अप्रत्याशित हमले से घिरकर रक्तरंजित हो जाते हैँ l ऐसी ही विकट स्थिति मेँ कृष्ण के हाथोँ महाबली एकलव्य का वध होता है l
अपने महानायक एकलव्य की कृष्ण के हाथोँ मृत्यु से निषाद क्षुब्ध होते हैँ l यदुकुल पतन के बाद उन्हीँ मेँ से एक निषादवीर के द्वारा कृष्ण की हत्या कर दी गई l
इतना ही नहीँ यादवी विनाश के बाद जब श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार शेष बचे यदुवंशीय परिवारोँ को लेकर अर्जुन द्वारिका से हस्तिनापुर जा रहे थे
तब बदले की भावना से निषाद-भीलोँ की सेना ने वन पथ मेँ घेरकर भीषण मारकाट मचाई और अर्जुन को पराजित कर पुरूषोँ को बन्दी बना लिया l
साथ ही यदुवंश की सुन्दरियोँ-गोपियोँ का अपहरण कर लिया l

" भीलन लूटी गोपिका,
ओई अर्जुन ओई बाण ll "
                




Wednesday, December 25, 2013

प्यार हो गया अपनों से ही

!! प्यार हो गया अपनों से ही !!

प्यार हो गया अपनों से ही .!
दिल कि ही बाते बोल रहे .!!

कुछ आदत सी क्यों मेरी फितरत में .!
क्यों ऐसा ही झेल रहे ………….... …!!

झपक रही अब आँखें मेरी .!
आशा में हम झूल रहे ....!!

महारत दी हे कुदरत ने .!
फिर भी हम न कूद रहे .!!

सामने हे मंज़िल भी मेरे .!
फिर भी न हम ढूंढ रहे ....!!

में अवाम का और मेरे सब .!
दिल कि बाते बोल रहे …...!!

बेशर्मो कि ईस दुनिया में .!
शर्मो कि दुनियाँ ढूंढ रहे ..!!

माना खिलाडी हे वो सतरंज के .!
क्यों इतना फिर सोच रहे। ......!!

प्यार हो गया अश्को से ही .!
दिल कि ही बाते बोल रहे ..!!

नहीं हे फिर सावन का मौसम .!
फिर झूले में क्यों झूल रहे ……!!

प्यार हो गया अपनों से ही .!
दिल कि ही बाते बोल रहे ..!!

लेखक/रचनाकार: रामप्रसाद रैकवार  

दिनांक: 23.11.2013...

तब चाँद था अब चाँद हूँ

!! तब चाँद था अब चाँद हूँ !!

में तब चाँद था अब भी चाँद हूँ .!
नक्षत्रों ने ही घुमा दिया .........!!

पूर्णिमा का भी चाँद दिखूँ में .!
जब कुदरत ने ही घुमा दिया .!!

लोगो को में कभी-कभी न दिखता .!
जब नक्षत्रों ने ही छुपा दिया ........!!

बीच में बादल और घटायें काली .!
कुदरत ने ही शिला दिया ..........!!

नहीं नींद और कहाँ अब चेन हे .!
जब कुदरत ने ही दिखा दिया ..!!


घुमु में आंतरिक्ष में अपनी गति से .!
जब कुदरत ने ऐसा बना दिया ......!!

कभी में बन जाऊँ ईद का चाँद भी .!
कभी पूर्णिमा का चाँद बना दिया ..!!

न दिखूँ तो तोबा - तोबा होती ....!
क्या-क्या कुदरत ने दिखा दिया .!!

पूर्ण चन्द्र्मा कि रोशनी ने .!
कुछ तो अहम् दिला दिया .!!

कर्म कि भूमि में रोज ही घूमकर .!
रातों को भी जगा दिया ............!!

में भी घूमुँ अपनी धुरी पर ..!
कर्म मिला हे जो भी दिया ..!!

में तब चाँद था अब भी चाँद हूँ ..!
नक्षत्रों ने ही घुमा दिया ..........!!

!! जय समाज !!

लेखक/रचनाकार: रामप्रसाद रैकवार  

व्यंग्य कविता

 व्यंग्य कविता !!

!! मुझको कड़छा ही बना दे !!

बहुत बन चुकी चमचो कि सेना .!
मुझको कड़छा ही बना दे ........!!

इससे ही स्वार्थ अबाद हुआ हे .!
मुझको मोका भी दिला दे .......!!

पीछे-पीछे क्यों खड़ा सा में .!
अगली पंक्ति में पहुँचा दे .!!


मोटा माल तभी मिले सभी को .!
मुझको कड़छा ही बना दे ........!!

एक बार में संकल्प हो पूरा .....!
इसकी सिफारिस कोई करवादे .!!

बार-बार का झंझट ख़तम हो .!
मोका कड़छे का ही दिलादे .!!

सबको रोज ही प्रणाम करूँगा .!
नहीं किसी को बदनाम करूँगा !!

अह्शान कोई तो करादे ....!
मुझको कड़छा ही बना दे .!!

न नहीं हे कोई नई परंपरा ....!
इसपर मुझको कोई चलवादे .!!

वादा करूँ में पक्का दोस्तों ....!
मेरी सिफारिस कोई करवादे .!!

कमाल देखा हे अपनी आँखों से ही .!
कड़छा रूठों को मनादे ................!!

ओलंपिक खेलों की बात ही क्या हे .!
वो सारे खेल ही जितादे ..........……!!

क्युकी नया खिलाड़ी हूँ इस खेल का ....!
यह खेल भी कोई सिखलादे ..............!!

छप्पन भोग भी साथ जो होंगे ...!
कड़छे से इज़ज़त कोई तो बड़ादे .!!

तभी में सबका प्यारा हूँगा ......!
इज़ज़त मुझको यही दिलवादे .!!

न होगा कोई कभी विरोधी .!
ऐसा करिश्मा कोई करादे ..!!

उन्नति करूँ में रोज ही सबकी .!
इसकी भी कोई राह दिखादे ......!!

न होगा पिछड़ा कोई गाँव शहर ही .!
केवल कड़छा ही बनवादे ............!!

नए युग में कदम रखा हे ....!
रास्ता मुझको यही दिखा हे .!!

कोई समझो समझो मेरी बात को .!
हाँथ अपना कोई बड़ादे ..............!!

बहुत बन चुकी चमचो कि सेना .!
मुझको कड़छा ही बना दे ..........!!

!! जय चमचे न न जय कड़छा !!

!! जय समाज !!

लेखक/रचनाकार: रामप्रसाद रैकवार .... 

दिनांक: 18.12.2013 ....

Tuesday, December 24, 2013

मुखोटो का शहर

!! मुखोटो का शहर !!

सुन्दर चेहरा और सुन्दर बाते .!
देखा इसी शहर में ..............!!

सुनते - सुनाते गुजरा समय हे .!
देखा इसी शहर ने .................!!

हलख में फसी हे बाते बहुत ही .!
देखा इसी शहर ने ................!!

खूब चिल्लाये पर बाते न निकल पाए .!
देखा इसी शहर ने …………………....!!

दिल हे यहाँ पर क्यों दिवाना .!
देखा इसी शहर में ............!!


यहाँ क्यों बना आदम मेंडक सा .!
कूदे इधर-उधर में ..................!!

जिद्धी वो हे क्यों हर बात का ..!
क्या नशा हे इसी शहर में .....!!

रंग बदल दे कब कोन यहाँ पर .!
देखा इसी शहर में ...............!!

पीए अमृत रोज पर क्यों उगले जहर हे .!
देखा इसी शहर में .........................!!

तीन को तेरह कोई रोज बताता .!
देखा इसी शहर में ...............!!

केदी कि तरह हे जीवन यहाँ पर .!
पर ठहरे इसी शहर में ……… !!

घर के रिश्ते टूटे बिखरे ..........!
पर जुड़े किसी से इसी शहर में .!!

रात में डर्ता क्यों शहर हे .!
देखा इसी शहर में ........!!

आचरण कि सब बात करे हे ....!
पर मिला न क्यों इसी शहर में .!!

मोल भाओ कि बाते चुपके से .!
देखा इसी शहर में …………..!!

बिकते देखे कई समान यहाँ पर..!
देखा इसी शहर में ………….....!!

डॉक्टर बना क्यों यहाँ इंजीनियर .!
देखा इसी शहर में ……………..!!

तजुर्बा कुछ हे पर देखे कुछ हे .!
देखा इसी शहर में ...............!!

टोपी भी रंग से बदलती देखी .!
वाह रे इसी शहर में ………...!!

इंसान बना हे कुछ और यहाँ पर .!
देखा इसी शहर में ……………...!!

जो समझाए वो हे खुदी तो भटके .!
देखा इसी शहर में ……………..!!

आँखे से ही बात हे होती .!
देखा इसी शहर में ……!!

गर्दन हिली तो कुछ ही मतलब .!
समझो इसी शहर में ………..!!

पल में पाला मोका देखकर बदले .!
देखा इसी शहर में ……………..!!

माफ़ करना कि गुस्ताकी .!
पर हूँ में भी इस शहर में .!!

पर सुझाव मेरा हे प्यार का सन्देश हो .!
प्यार - प्यार हो इसी शहर में …… !!

!! जय समाज !!

लेखक/रचनाकार: रामप्रसाद रैकवार  

दिनांक: 24.12.2013...

जिस पर तू भरोसा किया वही तेरा अगुली कटवा लिया

                                                                        
                                                                                    लेखक
                                                                                   मनोज कश्यप

आचार्य द्रोण राजकुमारों को धनुर्विद्या की विधिवत शिक्षा प्रदान करने लगे। उन राजकुमारों में अर्जुन के अत्यन्त प्रतिभावान तथा गुरुभक्त होने के कारण वे द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। द्रोणाचार्य का अपने पुत्र अश्वत्थामा पर भी विशेष अनुराग था इसलिये धनुर्विद्या में वे भी सभी राजकुमारों में अग्रणी थे, किन्तु अर्जुन अश्वत्थामा से भी अधिक प्रतिभावान थे। एक रात्रि को गुरु के आश्रम में जब सभी शिष्य भोजन कर रहे थे तभी अकस्मात् हवा के झौंके से दीपक बुझ गया। अर्जुन ने देखा अन्धकार हो जाने पर भी भोजन के कौर को हाथ मुँह तक ले जाता है। इस घटना से उन्हें यह समझ में आया कि निशाना लगाने के लिये प्रकाश से अधिक अभ्यास की आवश्यकता है और वे रात्रि के अन्धकार में निशाना लगाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया। गुरु द्रोण उनके इस प्रकार के अभ्यास से अत्यन्त प्रसन्न हुये। उन्होंने अर्जुन को धनुर्विद्या के साथ ही साथ गदा, तोमर, तलवार आदि शस्त्रों के प्रयोग में निपुण कर दिया।

उन्हीं दिनों हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र एकलव्य भी धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निम्न वर्ण का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया।

एक दिन सारे राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। इससे क्रोधित हो कर एकलव्य ने उस कुत्ते अपना बाण चला-चला कर उसके मुँह को बाणों से से भर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी किन्तु बाणों से बिंध जाने के कारण उसका भौंकना बन्द हो गया।

कुत्ते के लौटने पर जब अर्जुन ने धनुर्विद्या के उस कौशल को देखा तो वे द्रोणाचार्य से बोले, "हे गुरुदेव! इस कुत्ते के मुँह में जिस कौशल से बाण चलाये गये हैं उससे तो प्रतीत होता है कि यहाँ पर कोई मुझसे भी बड़ा धनुर्धर रहता है।" अपने सभी शिष्यों को ले कर द्रोणाचार्य एकलव्य के पास पहुँचे और पूछे, "हे वत्स! क्या ये बाण तुम्हीं ने चलाये है?" एकलव्य के स्वीकार करने पर उन्होंने पुनः प्रश्न किया, "तुम्हें धनुर्विद्या की शिक्षा देने वाले कौन हैं?" एकलव्य ने उत्तर दिया, "गुरुदेव! मैंने तो आपको ही गुरु स्वीकार कर के धनुर्विद्या सीखी है।" इतना कह कर उसने द्रोणाचार्य की उनकी मूर्ति के समक्ष ले जा कर खड़ा कर दिया।

द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे कि कोई अर्जुन से बड़ा धनुर्धारी बन पाये। वे एकलव्य से बोले, "यदि मैं तुम्हारा गुरु हूँ तो तुम्हें मुझको गुरुदक्षिणा देनी होगी।" एकलव्य बोला, "गुरुदेव! गुरुदक्षिणा के रूप में आप जो भी माँगेंगे मैं देने के लिये तैयार हूँ।" इस पर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ के अँगूठे की माँग की। एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा दे दिया। इस प्रकार एकलव्य अपने हाथ से धनुष चलाने में असमर्थ हो गया तो अपने पैरों से धनुष चलाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया।

मोर बहुत हे जंगल में

!! मोर बहुत हे जंगल में !!


मोर बहुत हे जंगल में .....!
कोई पंख लगा के देख ले .!!

बिखरे पड़े हे पंखों के झुण्ड से .!
उनको भी उठाके देख ले .......!!

चमक दिखेगी केसी वो अब .!
इस्तेमाल भी करके देख ले .!!



केसा होगा वो मस्त ही मौसम .!
समय के चक्र को देख ले .......!!

खुदी पहनो या कोई और भी पहने .!
इन मोरों का कमाल भी देख ले .…!!

सच्ची बात हे में मूल निवाशी .!
आदिवाशी से मिलकर देख ले .!!

भरा पड़ा हे रहस्यों से जंगल .!
एक रात बिता के देख ले ....!!

मेरा धन हे केवल जंगल सारा .!
नदी-समुन्दर उतर के देख ले .!!

चीटी भी यहाँ मस्त हे रहती .!
लोटन चश्मे से देख ले .……!!

ओरों कि तो बात ही क्या हे .!
इनको भी समझके देख ले .!!

पेड़ न हो और उजड़े जंगल हो ...!
वो नजारा भी जंगल का देख ले .!!

खिले न कभी इंसान का दिल भी .!
आज माके देख ले ..................!!

रोज ही नाँचें मोर यहाँ पर .!
उसकी कलगी भी देख ले .!!

ऊँची टोपी वो रोज ही पहने ....!
उसका भी कमाल भी देख ले .!!

मोर बहुत हे जंगल में .....!
कोई पंख लगा के देख ले .!!

!! जय समाज !!

लेखक/रचनाकार: रामप्रसाद रैकवार  

दिनांक: 24.12.2013 ...

सिर्फ एक होना चाहते हैं मगर एक होते नहीं !!!

सिर्फ एक होना चाहते हैं मगर एक होते नहीं !!!     
                                                                                                   लेखक
                                                                                  सुरेश कुमार एकलभ्य

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यह बड़ी सरलता से कह दिया जाता है कि हमे एकजुट होना चाहिए। सभी मछुआ जातियों को एक धवज ,एक शीर्षक और एक विचारधारा से जुड़ जाना चाहिए। विद्वान से लेकर अज्ञानी तक ऐसे सुर में बोलेंगे। मगर जब विषय एकजुटता का आएगा तो उसमे दोष निकालने और विश्लेषण की परवर्ती की मानो बाढ़ आ जायेगी। यही वह दुर्भागयपूर्ण क्षण होते है जहाँ सभी प्रयास धरे रह जाते हैं।

मेरी जाति धींवर है मगर मेरा परिवार कश्यप लिखता आया। कश्यप क्यों लिखा उन्हें आज तक नहीं पता। कुछ लोग कश्यप को एक जाति कहते हैं कुछ एक शीर्षक। मलाह जाति के लोग निषाद लिखते हैं। कहीं केवट तो कहीं मांझी। सारा खेल उलझम उलझा सरकार तो क्या खुद ये जातियां भी चक्कर काट जाए कि कौन क्या है। 

ब्राह्मण एक जाति है। जिसमे गोत्र के रूप में तिवारी,वशिष्ठ , भारद्वाज आदि हैं मगर उनका बोध 'शर्मा' है। एक शीर्षक उनके ब्राह्मण होने का बोध करा देता है। यादवों में कितनी जातियां हैं, मगर 'यादव' शब्द उन्हें एक मंच पर ले आता है। चमारो में भी अनेक जातियां हैं मगर इनका एक ही शब्द उनकी एकजुटता और संस्कृति को परिलक्षित करता है। 

'एकलव्य' एक ऐसा नाम है जिसे कोई भी मछुआरा जाति झुटला नहीं सकती। निषाद, कश्यप ,केवट, कहार आदि पर मतभेद हो सकते हैं मगर एकलव्य हमारे वह गौरव है जिस पर सभी एकमत दिखाई देते हैं। हम अपनी जातियों और धर्म में बने रहकर इस नाम का बड़ा लाभ उठा सकते हैं। यह हमारे मान -सम्मान का प्र्शन नहीं है अपितु हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसकी दरकरार है। ऐसा करने से आपका सिर नीचा नहीं होता है अपितु आपका सीना फख्र से चौड़ा हो जाता है, क्योंकि एकलव्य को केवल आप नहीं पूरी दुनिया सम्मान देती है। 

मेरे इस अभियान में मुझे दो महानुभाव मिले जिन्होंने अपने को एकलव्य कहने में गर्व महसूस किया। एक अमित एकलव्य और दूसरे जसवंत सिंह एकलव्य जी। मुझे इस प्रोत्साहन से लगता है कि मै एक विचारधारा के साथ उचित दिशा में बढ़ रहा हूँ। मुझे अपनी नहीं अपने समुदाय की चिंता है। जनवरी माह से आप लोगो के लिए निकलूंगा तो जिस प्रकार दो निषादों और एक कश्यप ने एकलव्य शीर्षक चुना मांझी , केवट आदि भी एकलव्य बनने की ओर अगरसर होंगे। 

जिन्हे क्रांति का अर्थ मालूम नहीं उन्हें पता लग जाना चाहिए कि क्रांति की शुरुआत यहीं से होती है। बिगुल बज चूका है। जिन्हे मेरे साथ आना है आइये अन्यथा घर में बैठकर तमाशा देखिये।

                 

Friday, December 20, 2013

मुख्यमंत्री एक अभियान: सत्रह से ख़तरा

                         मुख्यमंत्री एक अभियान:  सत्रह से ख़तरा
                                                                                              लेखक
                                                                                          बलराम बिंद
देश की आजादी के बाद देश के राजनेताओं ने आजादी पूर्व सामंती शासन में कथित जातिय भेदभाव व असमानता को दूर कर देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार व अवसर देने हेतु लोकतांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई| साथ ही पूर्व शासन काल में जातिय भेदभाव के शिकार दलित /पिछड़े लोगों को आगे बढ़ने के अवसर देने के लिए देश में आरक्षण व्यवस्था की| जो निसंदेह तारीफे काबिल थी (यदि समय के साथ उसमें बदलाव किये जाते या वह एक यह व्यवस्था एक निश्चित समय के लिए की जाती)| आखिर दलित /पिछड़े को आरक्षण दे आर्थिक रूप से सुदृढ़ कर ही समानता का अवसर दिया जा सकता था। शिक्षा,शासन और व्यापार में जाति एवं वर्ण आधारित शत प्रतिशत आरक्षण सदियों से कुछेक सवर्ण जातियों का रहा है, जिसके चलते बहुतायद का हक मारा जाता रहा और वे शैक्षणिक,सामाजिक,आर्थिक व राजनैतिक रूप से पिछड़ गए, सबसे ज्र्यादा गरीब यही लोग हैं,भारत में शिक्षा अमीरों/गरीबों के लिए अलग-अलग है। आज भी जाति-व्यवस्था कायम है

..मेरे विचार से ऐसी हालत में आरक्षण जाति आधारित ही उचित है। जाति खत्म होने पर आरक्षण स्वतः आर्थिक आधार पर हो जाएगा.। आरक्षण का एक सामाजिक आधार है। जब यह लागू किया गया तो उसका मतलब यह था कि भारत के जातिगत, सामाजिक विकासक्रम में निचली जातियां सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तौर पर पिछड़ गयी हैं, इसलिए इनको मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण लागू किया गया था।
इस आरक्षण के आधार पर कुछ जातियों शिक्षा मिला और आरक्षण के माध्यम से अपनी आर्थिक, सामाजिक स्वरूप के स्वर बदल गए लेकिन आरक्षण में कुछ जातीय भोजन के तलास करती रह गई जिसका कारण यह हुआ कि वह आरक्षण के मतलब ही नहीं समझ पाई कि, क्या है यह ,जब यह इन जातियों को महसूस हुआ कि बिना बिना आरक्षण हमारे समाज का विकास नहीं होगा तब कुछ राजनीतिक पार्टी ने उसे फैदा उठाने के लिए आरक्षण देने के नाम पर यूपी में 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल किया जायेगा। ये जातियां हैं - कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिन्द, भर, राजभर, धींमर, बाथम, तुरहा, गौड़, मांझी और मछुआ। उत्तर प्रदेश के राज्य मंत्रिपरिषद की बैठक में इस प्रस्ताव का मंजूरी दी गयी। जैसे ही प्रस्ताव को लागू हुआ कि कुछ ही दिन के बाद हाई कोर्ट से लोगो ने इस आरक्षण से स्टे लेने का काम किया ।
पार्टियों के राजनीतिक आधार मिला इस आधार पर कोई कहता है फला पार्टी तुम्हारा आरक्षण को मिलने से रोकी है । इस समाज को यह नहीं बताता है कि इस आरक्षण के लिए संवैधानिक नियम और कानून के तहत आप को अगर आरक्षण चाहिए तो यह प्रक्रिया है । जो संविधान के नियम कानून के तहत
17 अतिपिछड़ी जातियों का आरक्षण मामला ही विधान चुनाव में प्रभावी भूमिका निभाता है । उन्होंने कहा कि 54 प्रतिशत पिछड़े वर्ग की आबादी में 17 अतिपिछड़ी जाति की आबादी 18.30 प्रतिशत है । इस आधार पर उत्तर प्रदेश के 17 जातियों को एक होकर अपना मुख्यमंत्री बनाए क्योकि पूरे प्रदेश में 160 विधान सभा के सीट पर यह जातिय बहुल संख्या में और कई जगह कुछ समर्थन के बाद और सीट जीत जाने की संभावना है । जिसमें इन जातियों के नेता बड़े विशंभर प्रसाद निषाद ,समाजवादी पार्टी से है । ओमप्रकाश राजभर , पार्टी (भासपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष है।  प्रेमचन्द्र बिंद यह (मानव प्रगतीशील समाज पार्टी ) के अध्यक्ष है, और साथ ही डॉ संजय निषाद (निषाद एकता मंच) के राष्ट्रीय अध्यक्ष है,बसपा से राम अंचल राजभर है। भाजपा के मछुआरा प्रकोष्ठ के महासचिव चौधरी लौटन राम निषाद है आदि अभी वर्तमान में मछुआरों के विधायक 16 है, साथ ही राजभर समाज से कई विधायक है । सभी 17 सत्तर जातियों के प्रदेश स्तर पर बड़े-बड़े नाम है ।  17 जातियों के नेताओं को मिलकर अपना मुख्यमंत्री घोषणा करना चाहिए क्योकि सब पार्टी सपा, भाजपा, काग्रेस, बसपा सभी पार्टी इन जातियों के आरक्षण के नाम पर इन जातियों वोट लेने के काम कर रही है। 17 जातियों के समाज लगातार अपना वोट देने के काम कर रही है। जिसका प्रभाव न के बराबर लग रहा है। हर पार्टी आरक्षण देने काम कर रही है । और देती रहेगी इन जातियों को आज सोचने और समझने कि जरूरत है । जरूरत है कि पिछड़े जातियो के मछुआरो को मिलकर  एक तिसरा मोर्च (आरक्षण पार्टी ) नाम घोषित करके आरक्षण के नाम पर मुख्यमंत्री की घोषणा करके ।अगली विधान सभा के चुनाव लड़े समाज के विकास चाहते है तो समाज आप के इत्तजर कर रहा है । अब आप सभी नेताओं के ऊपर है कि समाज को मुख्यमंत्री देना चाहते है या लाली पाप । आप के चाहने वाला समाज ----आप के राही आप के इत्तजर में –आप के राय

                     जय निषाद             -         जय भारत 

Saturday, December 14, 2013

बदलाव की एक राह

                               
                                          बदलाव की एक राह 

निषाद ( मछुआ ) समाज कि राजनितिक, प्रसाशनिक,और सामाजिक भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए जरुरी मेरे विचारों में कुछ महत्वपूर्ण सुझाव ।

1- सबसे अहम् निषाद ( मछुआ ) समाज के बच्चों कि शिक्षा को पहले पायदान पर रखना क्यों कि शिक्षा ही सफलता कि कुंजी है । जो सबसे पहले पढ़ा वही आगे बढ़ा इतिहास गवाह है ।
2- समाज में फैली कुरीतियों और अन्धविश्वाश, को ख़तम करना होगा ।
3- सामाजिक एकता और अखंडता को बनाये रखना होगा ।
4- निषाद समाज के बुधजिवी लोगो को एक मंच पर आना होगा ।
5- निषाद समाज के जितने भी संगठन सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं उनकी जिमेवारी बनती है कि वह सिर्फ अपनी वाहवाही और पहचान पाने के लिए कार्य न करें बल्कि समाज के लोगो तक जाएँ और उनकी समस्याओं को ख़तम करने का प्रयास करें ।
6- जो संगठन जहाँ तक सम्भव हो समाज के आपसी विवाद को सही तरीके से सुलझाएं ।
7- समाज में डर ( दब्बू ) कि भावना को ख़त्म करना होगा 
8- समाज कि समस्याओं को लेकर संगठन द्वारा धरना प्रदर्सन करना होगा और समाज को न्याय दिलाना होगा ।
9- समाज के लोगों का विस्वास जितना होगा । और उनकी हीन भावना को ख़तम करना होगा ।
10- आपस में ही उंच नीच कि भावना को ख़तम करना होगा ।
११- समाज के होनहार बच्चों को आर्थिक मदत समाज के संगठनो द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए |
१२- एक बढ़ेगा तो दुसरा सामने आएगा कहावत है नाक के देखे साध लागे ।
१३- समाज को एक जुट करना होगा और उनके अंदर जोश भरना होगा ।

मैं निषाद समाज ( मछुआ ) समाज के हित के लिए चलने वाले सभी सामाजिक संगठनो से आग्रह और विनम्र निवेदन करता हूँ कि आप आइये और समाज को एकजुट कीजिये इन सुझाओं के अलावा भी भहुत कुछ है समाज को ऊपर उठाने के लिए ।
                                           लेखक

                                  राजेश  नाविक निषाद 

Thursday, December 5, 2013

सामाजिक न्याय से वंचित पिछड़ा वर्ग

सदियों सामाजिक न्याय से वंचित पिछड़ा वर्ग (SC ,ST,OBC ,CM ) के सामाजिक न्याय हेतु बाबा साहेब डॉ भीम राव आंबेडकर के तर्कपूर्ण दबाव में भारतीय संविधान में बहुत सारे प्राविधान बनाये गए . भारत का संविधान लागु हुए लगभग ६२ वर्ष बीत चुके है मगर इन प्राविधानो को अब तक लागू नहीं किया गया . उनको लागु करने में भी उपेक्षा बरती गयी मगर अब यह पिछड़ा वर्ग इस उपेक्षा को सहन करने के लिए तैयार नहीं है . यदि भारत सरकार, राज्य सरकारे आगे भी उपेक्षात्मक रवैया अपनाती रही तो यह पिछड़ा वर्ग इस देश में बहुत बड़ा जन आन्दोलन करने के लिए बाध्य होगा प्रशासनिक सेवाओ में वर्षो से रिक्त पड़े पदों को तत्काल भरा जाये और उनमे पिछड़ा वर्ग को उनकी आबादी के अनुसार समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाये . पिछड़ा वर्ग को हाई कोर्ट एव सुप्रीम कोर्ट में भी उनकी आबादी के अनुसार समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए क्योकि न्यायपालिका में बैठे एक वर्ग विशेष के न्यायधिशो ने पिछड़ा वर्ग के सवैधानिक अधिकारों के साथ न्याय नहीं किया है और पिछड़ा वर्ग अब इनसे न्याय की उम्मीद नहीं कर सकता . संविधान के किसी भी अनुच्छेद में आरक्षण में ५०% का अवरोध लगाने का कोई प्राविधान नहीं है फिर भी न्यापालिका ने संविधान की भावनाओ की उपेक्षा करते हुए आरक्षण में ५०% का अवरोध लगा दिया .इसी प्रकार संविधान के किसी भी अनुच्छेद में क्रीमीलेयर लगाने का कोई प्राविधान नहीं है फिर भी न्यायपालिका ने क्रीमीलेयर लगा दिया . संविधान का अनुच्छेद १६(४) गरीबी उन्मूलन का अनुच्छेद नहीं है. गरीबी उन्मूलन का अनुच्छेद ४१ ४३ और 46 है जिसकी ६२ वर्षो से उपेक्षा की जा रही है . अनुच्छेद १६(४) सामाजिक न्याय के लिए प्रशासन और न्यायपालिका में समुचित भागीदारी का अनुच्छेद है जिसके अंतर्गत पदों और नियुक्तियों में आरक्षण की बात कही गयी है चाहे वे सीधी भर्ती से भरे जाये या पदोन्नति से या परामर्श की प्रक्रिया से .फिर भी न्यायपालिका ने १९९२ में इंदिरा सहनी बनाम भारत संघ के वाद में अनुसूचित जातियों के प्रमोशन में आरक्षण को समाप्त कर दिया इसलिए की कही अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी पदोन्नति में आरक्षण की मांग न करने लगे . इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे ऐसे निर्णय है जिसके माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ा वर्ग के साथ न्याय नहीं किया है सेना में भी पिछड़ा वर्ग को उनकी आबादी के अनुसार कमांडिंग पदों पर नियुक्त किया जाये . इस देश का एक खास वर्ग ही देश नहीं है जिसके जिम्मे देश की रक्षा करने का तथा देश को आगे ले जाने का भार है .इस देश का ८५% पिछड़ा वर्ग (SC ,ST,OBC ,CM ) भी देश है और पिछड़ा वर्ग की उपेक्षा करना देश की उपेक्षा करना है उत्तर प्रदेश में १९७७ से पिछड़ा वर्ग के सरकारे बनने का क्रम जरी है मगर पिछड़ा वर्ग की इन सरकारों ने पिछड़ा वर्ग के लिए संविधान की भावनाओ के अनुरूप कोई कार्य नहीं किया क्योकि ये सरकारे उच्च वर्ग के नियंत्रण में कार्य करती रही है जिसका मुखिया पिछड़ा वर्ग का रहा है और नियंत्रण उच्च वर्ग का . पिछड़ा वर्ग की सरकारे ये जान ले की यदि पिछड़ा वर्ग को उनकी आबादी के अनुसार न्यायपालिका और प्रशासन में समुचित भागीदारी नहीं मिलती है तो यह पिछड़ा वर्ग इनके खिलाफ भी जनांदोलन तैयार करेगा पिछड़ा वर्ग के सामाजिक न्याय हेतु जनगरण करने के लिए समर्पित "पिछड़ा वर्ग की आवाज" हिंदी मासिक पत्रिका का विमोचन इलाहबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति माननीय आर ० सी ० दीपक ने किया है जिसका मै (डॉ जी सिंह कश्यप ) प्रधान संपादक हूँ ,और अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग एसोसिएसन का राष्ट्रीय अध्यक्ष हूँ .
                                       लेखक

                                डॉ जी सिंह कश्यप

Wednesday, November 27, 2013

बिरसा मुंडा का जीवन एवं संघर्ष

बिरसा मुंडा : साहस का एक नाम

हिन्दुस्तान की धरती पर समय-समय पर महान और साहसी लोगों ने जन्म लिया है. भारतभूमि पर ऐसे कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने बल पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे. ऐसे ही एक वीर थे बिरसा मुंडा. बिहार और झारखण्ड की धरती पर बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा अगर दिया जाता है तो उसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह भी है. मात्र 25 साल की उम्र में उन्होंने लोगों को एकत्रित कर एक ऐसे आंदोलन का संचालन किया जिसने देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान दिया. आदिवासी समाज में एकता लाकर उन्होंने देश में धर्मांतरण को रोका और दमन के खिलाफ आवाज उठाई. 

बिरसा मुंडा का जीवन 

बिरसा मुंडा (Birsa Munda) का जन्म 1875 में चलकद (वर्तमान झारखंड, भारत) में हुआ था. बिरसा के पिता सुगना मुंडा उलिहातु (झारखंड) के रहने वाले थे. माँ का नाम करमी (डीबर मुंडा की बड़ी लड़की जो अयुबहातुं के रहने वाले थे.) था. यह कभी बिहार का हिस्सा हुआ करता था पर अब यह क्षेत्र झारखंड में आ गया है. साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आए. सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था.

बिरसा मुंडा को अपनी भूमि, संस्कृति से गहरा लगाव था. जब वह अपने स्कूल में पढ़ते थे तब मुण्डाओं/मुंडा सरदारों की छिनी गई भूमि पर उन्हें दु:ख था या कह सकते हैं कि बिरसा मुण्डा आदिवासियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे तथा वे वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे.

ज्वाला की शुरूआत 

उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे. लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बलिक ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा. उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया. फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए.

1886 से 1890 तक बिरसा का चाईबासा मिशन के साथ रहना उनके व्यक्तित्व का निर्माण काल था. यही वह दौर था जिसने बिरसा मुंडा के अंदर बदले और स्वाभिमान की ज्वाला पैदा कर दी. बिरसा मुंडा पर संथाल विद्रोह, चुआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा. अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी. उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे.

बिरसा मुंडा का संघर्ष

बिरसा मुंडा न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया. बिरसा ने गांव-गांव घूमकर लोगों को अपना संकल्प बताया. उन्होंने अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज’ (हमार देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका.

उनकी गतिविधियां अंग्रेज सरकार को रास नहीं आई और उन्हें 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी. लेकिन बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला. उन्हें उस इलाके के लोग धरती बाबाके नाम से पुकारा और पूजा करते थे. उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी.

1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया. अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं. जनवरी 1900 में जहां बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे, डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी. अंत में स्वयं बिरसा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार हुए.

9 जून, 1900 को रांची कारागर में उनकी मौत हो गई. उनकी मौत से देश ने एक महान क्रांतिकारी को खो दिया जिसने अपने दम पर आदिवासी समाज को इकठ्ठा किया था.

बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है. उन्होंने वनवासियों और आदिवासियों को एकजुट कर उन्हें अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया. इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया. ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया .

अपने पच्चीस साल के छोटे जीवन में ही उन्होंने जो क्रांति पैदा की वह अतुलनीय है. बिरसा मुंडा धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक

लेखक -दिलीप कुमार निषाद 

Sunday, November 24, 2013

अर्जुन बनो अथवा कर्ण, एक मोर्चा तो लेना पड़ेगा

अर्जुन बनो अथवा कर्ण, एक मोर्चा तो लेना पड़ेगा !!
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रणभूमि रणवीरों की प्रतीक्षा में व्याकुल है मगर रणवीर है कि अभी यही निर्णय नहीं कर पाये हैं कि युद्धघोष कैसे होना है। इन वीर योद्धाओं पर यह उक्ति स्पष्ट चरितार्थ होती है कि "सूत ना कपास जुलाहों में लठमलत्ता". समुदाय में अभी तक यही जद्दोजहद चल रही है कि हम छत्रिय हैं , ब्राह्मण हैं,शुद्र हैं, फलाने हैं, ढिमके हैं। स्वाभाविक है कि अभी तक समुदाय अपने अस्तित्व के शैशवकाल में संघर्षरत है। वर्ण व्यस्था के इस कठिन चक्रव्यूह में लोटपोट यह समुदाय कब और कैसे अपने अधिकारो के लिए रणभेरी बजाये, यह यक्ष प्र्शन आज मुह बाए खड़ा है। 

युद्ध जब भी होते हैं, उनके पीछे कई मुख्य कारण होते हैं। मगर इस विशाल समुदाय के समक्ष तो कारण ही नहीं अपितु तात्कालिक जरूरते तक हैं। मगर अहंकार है कि शस्त्र उठने ही नहीं दे रहा। कारण स्पष्ट है कि मछुआ समाज  आज भी खुद को निम्नता और श्रेष्ठा के कवच से मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि हम स्वयं ही छत्रिय बन जाते हैं और स्वयं ही शुद्र। फिर रणभेरी कैसे बाजे। स्मरण रहे, यदि अधिकार प्राप्त करने हैं तो शुद्र बनकर ही मिलेंगे। छत्रिय और ब्राह्मण बनकर कोई उपलब्धि हमें न मिलेगी। मत भूलिए कि इस मुल्क का ४० फीसदी से ऊपर का तबका वर्ण व्यवस्था के आधार पर केवल शुद्र है। उस अभिमान को ह्रदय से निकाल दीजिये कि हम छत्रिय बनकर मंजिल फतह कर लेंगे। परिस्थितियों का आंकलन करिये। लक्ष्य और आधार देखिये फिर सोचिये कि रणभेरी कैसे बजाये। कैसे रणभूमि में ताल ठोकें। अन्यथा जिस प्रकार का वातावरण है वह तो जुलाहों की उक्ति को ही प्रासंगिक बनाता रहेगा। 
जय कालू बाबा !
लेखक 
सुरेश कश्यप 

भुजी थी आग जली फिर क्यों हे

!! भुजी थी आग जली फिर क्यों हे !!

भुजी थी आग जली फिर क्यों हे .!
इतना भयंकर रूप सा क्यों हे ....!!

सूखे कपास के अभी भी खेत खड़े हे .!
किनारे आग के मेड अब सा क्यों हे .!!

काँप रही हे हर वो खेती ..............!
इतना जंगल में आँतक सा क्यों हे .!!

हवा भी चली क्यों उलटी ऐसी ....!
साथ क्यों हे और आग सी क्यों हे.!!

हिली धरती उसपे क्यों आग सी .!
निशाँ न बारिश का अब क्यों हे . !!

साँय -२ करती पवन भी चंचल .!
इतना मौसम ख़राब सा क्यों हे .!!

दोस्त रहा हे मेरा ही मौसम ...!
तुरेरी सी उसकी आँखे क्यों हे .!!

आशा में हे हर खेत की आँखे .....!
बादल/बारिश का इंतजार क्यों हे .!!

अफरा-तफरी सी मची जंगल में .…!
पासविक्ता का यह खेल ही क्यों हे .!!

दुआ हे मेरी इस मौसम से ....!
छीना खेत का चेन सा क्यों हे .!!

नाँच रही आग कि ज्वाला .!
इंतगाम सा लेती क्यों हे ...!!

भुजी थी आग जली फिर क्यों हे .!
इतना भयंकर रूप सा क्यों हे ....!!

!! जय समाज !!


लेखक/रचनाकार: रामप्रसाद रैकवार  

दिनांक: 16.11.2013 .

Friday, November 22, 2013

राजनेतिक दलों को कोसने से भला नहीं होने वाला

राजनेतिक दलों को कोसने से भला नहीं होने वाला !!!
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यह एक कमजोर और बड़बोले समुदाय की परणिति ही कही जायेगी जो अपनी परिस्थितियों से आतमसात नहीं होकर अपना दोषारोपण विभिन्न राजनेतिक दलों पर डाल देता है। यह उसी कामचोर व्यक्ति का गुण है जो काम से जी चुराने के लिए अलग -अलग बहाने गढ़ने में चतुर होता है। कुछ ऐसी ही धारणा पर अपना समुदाय चल रहा है। खुद के बलबूते तो पर्वत फतह कर नहीं सकते दोष उल्टा पर्वत का निकाल देने के हम मंझे खिलाडी है। 
हमने फलां की सरकार बनाई। फलां सरकार हमारे बिना न बनेगी। हमें आरक्षण देना चाहिए। ढिमका सरकार हमारे विरुद्ध काम कर रही है। उसे देखो, हमारे अधिकारों पर अतिक्रमण कर रहा है। रोते हैं, हाय तौबा मचाते हैं मगर स्वयं अपनी अंतरात्मा से आतमसात नहीं होने का हम कभी प्रयत्न नहीं करते। हम कभी नहीं देखते कि हमारा अपना क्या वजूद हैं। यही हमारे पतन और पराजित होने का प्रमुख कारण है। नेताओं और राजनेतिक दलों पर दोषारोपण करने का यह विचित्र दौर है। जिसमे एक व्यक्ति नहीं अपितु उसकी संस्कृति, इतिहास और उसका अस्तित्व भी हाशिये पर जा रहा है। इस सभी को सुरक्षित और गौरवान्वित करने का एक ही मार्ग है, किसी अन्य पर दोषारोपण नहीं करके स्वयं के बलबूते कुछ करें। क्रांति का सूत्रपात करें। समुदाय में क्रांति लाये। सामाजिक क्रांति। अधिकारों की क्रांति। जागृत होने की क्रांति। जगाने की क्रांति। फिर विजय आपकी मुट्ठी में होगी और इस भारतवर्ष के नीतिनिर्धारक आप होंगे। चंद मुट्ठी भर लोग नहीं। जय कालू बाबा !!!
                                     लेखक

                               सुरेश कश्यप 

Monday, November 11, 2013

कहाँ जाएँ रे ............

                                  कहाँ जाएँ  रे .......                              .लेखक

                                                                                    बलराम बिंद 

सुबह हवा तेज थी, गुलाबी ठंड दस्तक दे चुकी थी फिर भी मैं घूमना चाहा । चिड़िया एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपने पंख के सहारे उड़ती हुई नजर आ रही थी।  उस उड़ना में ही आवाज आ रही थी । कैव,कैव, तो कभी कु ...कु कु हो कु फिर क्या देखना था। रास्ते में किसान अपनी कुदाल और हासिया लिए खेतों की तरफ बढ़ रहा था, अपनी खेत की फसल को देख कर कभी इस मेंड़ के कोने से, तो उस मेंड़ कोने जाता उसकी मुस्कान भी कभी-खुशी तो कभी गम वाली थी । फसल के रूप एक समान नहीं थी । उस किसान के ही तरह भगवान ने एक तरह के फसल लगाने की कोशिश तो किया। जिस फसल के डंठल मजबूत थी कमजोर फसल के ऊपर से गीर गई कमजोर फसल धीरे- धीरे अपना अस्तित्व मिटाने लगा दुनिया बनाने वाले तेरे मन में क्या समय कहे के दुनिया बनाया ....
मेरे पगडंडी लग रही थी की वह आगे बढ़ती ही जा रही थी, किसान घर के तरफ बढ़ाने लगा चिड़िया पड़े के डाल पर बैठने लगी थी, इस संकेत से लग रहा था की मुझे भी अपने घर चलना चाहिए...........
चिड़िया पेड़ पर बैठ कर आवाज देना शुरू कर दी, लग रहा था कि वह अपने साथी के साथ भोजन के तलास में आगे बढ़ने का संकेत दे रहा हो फिर क्या था साथी एक दूसरे के आवाज सुन कर एक होने लगे फिर से पथ के लिए आगे बढ़ने लगे ...............
फिर क्या था मै भी न आव देखा ताव देखा तालाब में कूदने के काम किया मेरे कपड़े गीले हो चुके थे रास्ते में लोग देख कर हंसना शुरू का दिये पूछने लगे अरे भाई गए थे घूमने और पूरे गीले हो के आ रहे हो मुझे लगा मुझे कुछ कहने से पहले चिड़िया के तरह अपना पथ  पर चलना चाहिए फिर मै वहीं किया, निकल पड़ा ..............
रास्ते में इस दुनिया के अबूझ पहेली को देखा रास्ते में गरीब परिवार के कुछ घर था गुलाबी ठंड ने उन गरीब परिवार को सतना शुरू कर दिया था फिर उस चिड़िया की तरह वह भी उड़ना चाह रहे थे इस समजा ने इतने मजबूर कर दिया था की वह सामन्ती लोग से आए दिन अपने चुगल से बाहर जाने चांह रहे थे बाहर जा नहीं पा थे, चिड़िया अपने भोजन के तलसा में उसे उस बहेलिया से बचने के लिए हमेसा सतर्क रहना पड़ता है कि काही भोजन के तलास में बहेलिया अपना शिकार न बना ले फिर भी भोजन तो करना ही था इस सब दिन दुनिया को देखते हूँए वह अपना भोजन को तलस करती ही है, फिर भी गरीव को जीने के लिए अपने को बचाए रखने के लिए  काम तो रहे थे, लिकिन वह उड़ नहीं पा रहे थे । ................
आप को बढ़िया लगे तो जरूर अपना विचार देना .....
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